सदाबहार >> प्रेमाश्रम (उपन्यास) प्रेमाश्रम (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है
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डाक्टर प्रियनाथ चोपड़ा बहुत ही उदार, विचारशील और सहृदय सज्जन थे। चिकित्सा का अच्छा ज्ञान था और सबसे बड़ी बात यह है कि उनका स्वभाव अत्यन्त कोमल और नम्र था। अगर रोगियों के हिस्से की शाक-भाजी, दूध-मक्खन, उपले-ईधन का एक भाग उनके घर में पहुँच जाता था, तो यह केवल वहाँ की प्रथा थी। उनके पहले भी ऐसा ही व्यवहार होता था। उन्होंने इसमें हस्तक्षेप करने की जरूरत न समझी। इसलिए उन्हें कोई बदनाम कर सकता था और न उन्हें स्वयं ही इसमें कुछ दूषण दिखाई देता था। वह कम वेतन वाले कर्मचारियों से केवल आधी फीस लिया करते थे और रात की फीस भी मामूली ही रखी थी। उनके यहा सरकारी चिकित्सालय से मुफ्त दवा मिल जाती थी, इसलिए उनकी अन्य डाक्टरों से अधिक चलती थी। इन कारणों से उनकी आमदनी बहुत अच्छी हो गयी थी। तीन साल पहले वह यहाँ आये थे तो पैरगाड़ी पर चलते थे, अब एक फिटन थी। बच्चों को हवा खिलाने के लिए छोटी-छोटी सेजगाड़ियाँ थीं। फर्नीचर और फर्शें आदि अस्पताल के ही थे। नौकरों का वेतन भी गाँठ से न देना पड़ता था। पर इतनी मितव्ययिता पर भी वह अपनी अवस्था की तुलना जिले के सब-इन्जीनियर या कतिपय वकीलों से करते थे तो उन्हें विशेष आन्नद न होता था। यद्यपि उन्हें कभी-कभी ऐसे अवसर मिलते थे जो उनकी आर्थिक कामनाओं को सफल कर सकते थे, पर उनकी विचारशीलता भी उन्हें बहकने न देती थी। कॉलेज छोड़ने के बाद कई वर्ष तक उन्होंने निर्भीकता से अपने कर्तव्य का पालन किया था, लेकिन कई बार पुलिस के विरुद्ध गवाही देने पर मुँह की खानी पड़ी तो चेत गये। वह नित्य पुलिस का रुख देखकर अपनी नीति स्थिर किया करते थे तिस पर भी अपने निदानों को पुलिस की इच्छा के अधीन रखने में उन्हें मानसिक कष्ट होता था। अतएव जब गौस खाँ की लाश उनके पास निरीक्षण के लिए भेजी गयी तो वह बड़े असमंजस में पड़े। निदान कहता था कि यह एक व्यक्ति का काम है, एक ही वार में काम तमाम हुआ है, किन्तु पुलिस की धारणा थी कि यह एक गुट्टा का काम है। बेचारे बड़ी दुविधा में पड़े हुए थे। यह महत्त्वपूर्ण अभियोग था। पुलिस ने अपनी सफलता के लिए कोई बात न उठा रखी थी। उसका खंडन करना उससे वैर मोल लेना था और अनुभव से सिद्ध हो गया था कि यह बहुत महँगा सौदा है। गुनाह था मगर बेलज्जत। कई दिन तक इसी हैस-बैस में पड़े रहे, पर बुद्धि कुछ काम न करती थी। इसी बीच में एक दिन ज्ञानशंकर उनके पास रानी गायत्री देवी का एक पत्र और ५०० रुपये पारितोषिक लेकर पहुँचे। रानी महोदय ने उनकी कीर्ति सुनकर अपनी गुण-ग्राहकता का परिचय दिया था। उनमें शिशुपालन पर एक पुस्तक लिखवाना चाहती थीं। इसके अतिरिक्त उन्हें अपना गृह चिकित्सक भी नियत किया था और प्रत्येक ‘विजिट’ के लिए १०० रुपये का वादा था। डॉक्टर साहब फूले न समाए। ज्ञानशंकर की ओर अनुग्रह पूर्ण नेत्रों से देखकर बोले, श्रीमती जी की इस उदार गुणग्रहकता का धन्यवाद देने के लिए मेरे पास शब्द नहीं हैं। आप मुझे अपना सेवक समझिए। यह सब आपकी कृपादृष्टि है, नहीं तो मेरे जैसे हजारों डॉक्टर पड़े हुए हैं। ज्ञानशंकर ने इसका यथोचित उत्तर दिया इसके बाद देश-काल सम्बन्धी विषयों पर वार्तालाप होने लगा। डॉक्टर साहब का दावा था कि मैं चिकित्सा में आई० एम० एस० वालों से कहीं कुशल हूँ और ऐसे असाध्य रोगियों का उद्धार कर चुका हूँ जिन्हें सर्वज्ञ आई० एम० एस० वालों ने जवाब दे दिया था। लेकिन फिर भी मुझे इस जीवन में इस पराधीनता से मुक्त होने की कोई आशा नहीं। मेरे भाग्य में विलायत के नव-शिक्षित युवकों की मातहती लिखी हुई है।
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