सदाबहार >> प्रेमाश्रम (उपन्यास) प्रेमाश्रम (उपन्यास)प्रेमचन्द
|
370 पाठक हैं |
‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है
ईजाद हुसेन ने मथुरादास की ओर वक्रदृष्टि से देखकर कहा, साफ-साफ अपना मतलब क्यों नहीं कहते? आप इनकी मन्शा समझ गये होंगे। अभी ना-तजुर्बेंकार आदमी, बातचीत करने की तमीज नहीं है, जभी तो रोज धक्के खाते हैं। इनकी मन्शा है कि आप दावा दायर करें, लेकिन यह मामले को तूल नहीं देना चाहते, सिर्फ अलदहा होना चाहते हैं क्यों ठीक है न?
मथुरादास– (सरल भाव से) जी हाँ, बस यही चाहता हूँ कि उनसे मेरी राजी-खुशी हो जाय।
मुंशी रमजानअली मुहर्रिर थे। ईजाद हुसेन मथुरादास को उनके कमरे में ले गये। वहाँ खासा दफ्तर था। कई आदमी बैठे लिख रहे थे। रमजान अली ने पूछा, कितने का दावा होगा?
ईजाद– यही कोई एक लाख का।
रमजान अली ने वकालातनामा लिखा। कोर्ट फीस, तलबाना, मेहनताना, नजराना आदि वसूल किये, जो मथुरादास ने ईजाद हुसेन की ओर अविश्वास की दृष्टि से देखते हुए दिये, जैसे कोई किसान पछता-पछता कर दक्षिणा के पैसे निकालता है। और तब दोनों सज्जनों ने घर की राह ली।
रास्ते में मथुरादास ने कहा, आपने जबरदस्ती मुझे भैया से लड़ा दिया। सैकड़ों रुपये की चपत पड़ गयी और अभी कोर्ट फीस बाकी ही है।
ईजाद हुसेन बोले, एहसान तो न मानोगे कि भाई की गुलामी से आजाद होने का इन्तजाम कर दिया। आधी दूकान के मालिक बनकर बैठोगे, उल्टे और शिकायत करते हो।
|