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कहानी संग्रह >> प्रेम प्रसून ( कहानी-संग्रह )

प्रेम प्रसून ( कहानी-संग्रह )

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :286
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8588
आईएसबीएन :978-1-61301-115

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इन कहानियों में आदर्श को यथार्थ से मिलाने की चेष्टा की गई है


उसने कुछ जवाब नहीं दिया। किंकर्त्तव्य-विमूढ़ की तरह एक बार आकाश की ओर देखा और चला गया। मेरे हृदय में कठिन वेदना हुई और स्वार्थपरता पर ग्लानि हुई। पर अन्त को मैंने जो निश्चय किया था। उसी पर स्थिर रहा। इस विचार से मन को संतोष हो गया कि मैं ऐसा कहाँ का धनी हूँ, जो यों रुपये पानी में फेंकता फिरूँ।

यह है उस कपट का परिणाम, जो मेरे कवि-मित्र ने मेरे साथ किया।

मालूम नहीं आगे चलकर इस निर्दयता का क्या कुफल निकलता; पर सौभाग्य से उसकी नौबत न आई। ईश्वर को मुझे इस अपयश से बचाना मंजूर था। जब वह आँखों में आँसू भरे मेरे पास से चला तो कार्यालय के एक क्लर्क पं. पृथ्वीनाथ से उसकी भेंट हो गई। पंडितजी ने सब हाल पूछा। पूरा वृत्तांत सुन लेने पर बिना किसी आगे-पीछे के उन्होंने १५ रु. निकालकर उसे दे दिये। ये रुपये उन्हें कार्यालय के मुनीम से उधार लेने पड़े। मुझे यह हाल मालूम हुआ, तो हृदय के ऊपर से एक बोझ सा उतर गया। अब वह बेचारा मजे से अपने घर पहुँच जाएगा। यह संतोष मुफ्त ही में प्राप्त हो गया। कुछ अपनी नीचता पर लज्जा भी आई। मैं लम्बे-लम्बे लेखों में दया, मनुष्यता और सद्व्यवहार का उपदेश किया करता था; पर अवसर पड़ने पर साफ जान बचाकर निकल गया। और वह बेचारा क्लर्क, जो मेरे लेखों का भक्त था, इतना उदार और दयाशील निकला! गुड़-गुड़ ही रहे, और चेला शक्कर हो गए! खैर, इसमें भी एक व्यंग्यपूर्ण संतोष था कि मेरे उपदेशों का असर मुझ पर न हुआ, न सही, दूसरों पर हुआ। चिराग के तले अँधेरा रहा, तो क्या हुआ, उसका प्रकाश तो फैल रहा है। पर कहीं बच्चा को रुयये न मिले (और शायद ही मिलें, इसकी बहुत कम आशा है) तो खूब छकेंगे। तब हजरत को आड़े हाथों लूँगा। किन्तु मेरी यह अभिलाषा न पूरी हुई। पाँचवें दिन रुपये आ गए, ऐसी और आँखें खोल देने वाली यातना मुझे कभी नहीं मिली थी। खैरियत यही थी मैंने इस घटना की चर्चा स्त्री से नहीं की थी; नहीं तो मुझे घर में रहना भी मुश्किल हो जाता।

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