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प्रेम प्रसून ( कहानी-संग्रह )

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :286
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8588
आईएसबीएन :978-1-61301-115

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इन कहानियों में आदर्श को यथार्थ से मिलाने की चेष्टा की गई है


एक दिन वह आनंदी के यहाँ गये, तो सिर में दर्द हो रहा था। कुछ लिखने की इच्छा न हुई। आनंदी को इसका कारण मालूम हुआ, तो उसने उनके सिर में धीरे-धीरे तेल मलना शुरू किया। गोपीनाथ को उस समय अलौकिक सुख मिल रहा था। मन में प्रेम की तरंगें उठ रही थीं–नेत्र, मुख, वाणी–सभी प्रेम में पगे जाते थे। उसी दिन से उन्होंने आनंदी के यहाँ आना छोड़ दिया। एक सप्ताह बीत गया, और न आये। आनंदी ने लिखा–आपसे पाठशाला-सम्बन्धी कई विषयों में राय लेनी है। अवश्य आइए। तब भी न गये। उसने फिर लिखा–मालूम होता है आप मुझसे नाराज हैं। मैंने जान-बूझकर तो कोई ऐसा काम नहीं किया, लेकिन यदि वास्तव में आप नाराज हैं तो मैं यहाँ रहना उचित नहीं समझती। अगर आप अब भी न आएँगे तो मैं द्वितीय अध्यापिका को चार्ज देकर चली जाऊँगी। गोपीनाथ पर इस धमकी का कुछ भी असर न हुआ। अब भी न गये। अंत में दो महीने तक खिंचे रहने के बाद उन्हें ज्ञात हुआ कि आनंदी बीमार है, और दो दिन से पाठशाला नहीं आ सकी। तब किसी तर्क या युक्ति से अपने को न रोक सके। पाठशाला में आये, और कुछ झिझकते, कुछ सकुचाते, आनंदी के कमरे में कदम रखा। देखा, तो वह चुपचाप पड़ी हुई थी। मुख पीला था, उसने उनकी ओर दया-प्रार्थी नेत्रों से देखा। उठना चाहा, पर अशक्ति ने उठने न दिया। गोपीनाथ ने आर्द्र कंठ से कहा–लेटी रहो, लेटी रहो, उठने की ज़रूरत नहीं। मैं बैठ जाता हूँ। डाक्टर साहब आये थे?

मिश्राइन ने कहा–जी हाँ, दो बार आये थे। दवा दे गए हैं।

गोपीनाथ ने नुसखा देखा। डाक्टरी का साधारण ज्ञान था। नुसखे से ज्ञात हुआ, हृदयरोग है। औषधियाँ सभी पुष्टिकर और बलवर्द्धक थीं। आनंदी की ओर फिर देखा। उसकी आँखों से अश्रु-धारा बह रही थी। उसका गला भी भर आया। हृदय मसोसने लगा। गद्गद होकर बोले–आनंदी, तुमने मुझे पहले इसकी सूचना न दी, नहीं तो रोग इतना न बढ़ने पाता।

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