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प्रेम प्रसून ( कहानी-संग्रह )

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :286
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8588
आईएसबीएन :978-1-61301-115

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इन कहानियों में आदर्श को यथार्थ से मिलाने की चेष्टा की गई है


नगर के लालबुझक्कड़ों में इस सहकारिता पर टीका-टिप्पणियाँ होने लगीं। पर विद्वज्जन अपनी आत्मा की शुचिता के सामने ईर्ष्या के व्यंग्य की कब परवाह करते हैं! आनंदी कहती, यह तो संसार है, जिसके मन में जो आवे, कहे, मैं उस पुरुष का निरादर नहीं कर सकती, जिस पर मेरी श्रद्धा है। पर गोपीनाथ इतने निर्भीक न थे। इनकी सुकीर्ति का आधार लोक-मत था। वह उसकी भर्त्सना न कर सकते थे। इसलिए वह दिन के बदले रात को रचना करने लगे। पाठशाला में इस समय कोई देखनेवाला न होता था। रात की नीरवता में खूब जी लगता। आराम कुर्सी पर लेट जाते। आनंदी मेज के सामने कलम हाथ में लिए उनकी ओर देखा करती। जो कुछ उनके मुख से निकलता, तुरंत लिख लेती। उसकी आँखों से विनय और शील, श्रद्धा और प्रेम की किरणें-सी निकलती हुई जान पड़तीं। गोपीनाथ जब किसी भाव को मन में व्यक्त करने के बाद आनंदी की ओर ताकते कि वह लिखने के लिए तैयार है या नहीं, तो दोनों व्यक्तियों की निगाहें मिलतीं और आप-ही-आप झुक जातीं। गोपीनाथ को इस तरह काम करने की ऐसी आदत पड़ती जाती थी कि जब किसी कार्यवश यहाँ आने का अवसर न मिलता, तो वह विकल हो जाते थे।

आनंदी से मिलने के पहले गोपीनाथ को स्त्रियों का जो कुछ ज्ञान था, वह केवल पुस्तकों पर अवलम्बित था। स्त्रियों के विषय में प्राचीन और अर्वाचीन, प्राच्य और पाश्चात्य, सभी विद्वानों का ही एक मत था–ये मायावी, आत्मिक उन्नति की बाधक, परमार्थ की विरोधिनी, वृत्तियों को कुमार्ग की ओर ले जानेवाली, हृदय को संकीर्ण बनानेवाली होती हैं। इन्हीं कारणों से उन्होंने इस मायावी जाति से अलग रहना ही श्रेयकर समझा था, किंतु अनुभव बतला रहा था कि स्त्रियाँ सन्मार्ग की ओर भी ले जा सकती हैं, उनमें सदगुण भी हो सकते हैं, वे कर्त्तव्य और सेवा के भावों को जाग्रत भी कर सकती हैं। तब उनके मन में प्रश्न उठता, यदि आनंदी से मेरा विवाह होता, तो मुझे क्या आपत्ति हो सकती थी? उसके साथ तो मेरा जीवन आनंद से कट जाता।

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