कहानी संग्रह >> प्रेम प्रसून ( कहानी-संग्रह ) प्रेम प्रसून ( कहानी-संग्रह )प्रेमचन्द
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इन कहानियों में आदर्श को यथार्थ से मिलाने की चेष्टा की गई है
आतंक बढ़ता ही गया। सुरेश ने डॉक्टर बुलवाए। पर मृत्यु-देव ने किसी कि न मानी। उसका हृदय पाषाण है। किसी भाँति नहीं पसीजता। कोई अपना हृदय निकालकर रख दे, आँसुओं की नदी बहा दे; पर उन्हें दया नहीं आती। बसे हुए घर को उजाड़ना, लहराती हुई खेती को सुखाना उनका काम है। और, उनकी निदंयता कितनी विनोदमय है? वह नित्य नए रूप बदलते रहते हैं। कभी दामिनी बन जाते हैं तो कभी पुष्प माला, कभी सिंह बन जाते हैं, तो कभी सियार। कभी अग्नि के रूप में दिखाई देते हैं, तो कभी जल के रूप में।
तीसरे दिन, पिछली रात को विमल की मानसिक पीड़ा और हृदय-ताप का अंत हो गया। चोर दिन को कभी चोरी नहीं करता। यम दूत प्रायः रात को ही सबकी नजरें बचाकर आते हैं, और प्राण रत्न को चुरा ले जाते हैं। आकाश के फूल मुरझाए हुए थे। वृक्ष-समूह स्थिर थे; पर शोक में मग्न, सिर झुकाए हुए। रात शोक का बाह्यरूप है। रात मृत्यु का क्रीड़ा-क्षेत्र है। उसी समय विमल के घर से आर्त-नाद सुनाई दिया–वह नाद, जिसे सुनने के लिए मृत्युदेव विकल रहते हैं।
शीतला चौंक पड़ी, और घबरायी हुई मरण-शय्या की ओर चली। उसने मृत देह पर निगाह डाली, और भयभीत होकर एक पग पीछे हट गई। उसे जान पड़ा, विमल सिंह उसकी ओर अत्यन्त तीव्र दृष्टि से देख रहे हैं। बुझे हुए दीपक में उसे भयंकर ज्योति दिखाई पड़ी। वह मारे भय के वहाँ ठहर न सकी। द्वार से निकल ही रही थी कि सुरेशसिंह से भेंट हो गई। कातर स्वर में बोली–मुझे यहाँ डर लगता है। उसने चाहा कि रोती हुई उनके पैरों पर गिर पड़ूँ; पर वह अलग हट गए।
जब किसी पथिक को चलते-चलते ज्ञात होता है कि मैं रास्ता भूल गया हूँ, तो वह सीधे रास्ते पर आने के लिए बड़े वेग से चलता है। झुँझलाता है कि मैं इतना असावधान क्यों हो गया?सुरेश भी अब शांति-मार्ग पर आने के लिए विकल हो गए। मंगला की स्नेहमयी सेवाएँ याद आने लगीं। हृदय में वास्तविक सौंदर्योपासना का भाव उदय हुआ। उसमें कितना प्रेम, कितना त्याग था, कितनी क्षमा थी! उसकी अतुल पति-भक्ति को याद करके कभी-कभी वह तड़प जाते। आह! मैंने घोर अत्याचार किया। ऐसे उज्ज्वल रत्न का आदर न किया। मैं यही जड़वत् पड़ा रहा, और मेरे सामने ही लक्ष्मी घर से निकल गई! मंगला ने चलते-चलते शीतला से जो बातें कहीं, वे उन्हें मालूम थीं। पर उन बातों पर विश्वास न होता था। मंगला शांत-प्रकृति की थी; वह इतनी उद्दण्डता नहीं कर सकती। उसमें क्षमा थी; वह इतना विद्वेष नहीं कर सकती। उनका मन कहता था कि वह जीती है और कुशल से है। उसके मायके वालों को कई पत्र लिखे, पर वहाँ व्यंग्य और कटु वाक्यों के सिवा और क्या रखा था? अंत में उन्होंने लिखा–अब उस रत्न की खोज में मैं स्वयं जाता हूँ। या तो उसे लेकर ही आऊँगा, या कहीं मुख में कालिख लगाकर डूब मरूँगा।
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