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प्रेम प्रसून ( कहानी-संग्रह )

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :286
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8588
आईएसबीएन :978-1-61301-115

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इन कहानियों में आदर्श को यथार्थ से मिलाने की चेष्टा की गई है


यह कहकर वह कमरे से निकल आया, और माँ के कमरे में लेट रहा। माँ ने तुरंत उसका मुँह और हाथ-पैर धुलाए। वह चूल्हा जलाकर पूरियाँ पकाने लगी। साथ-साथ घर की विपत्ति-कथा भी कहती जाती थी। विमल के हृदय में सुरेश के प्रति जो विरोधाग्नि प्रज्जवलित हो रही थी। वह शांत हो गई; लेकिन हृदय-दाह ने रक्त-दाह का रूप धारण किया। जोर का बुखार चढ़ आया। लम्बी यात्रा की थकान और कष्ट तो था ही, बरसों के कठिन श्रम और तप के बाद यह मानसिक संताप और भी दुस्साह हो गया।

सारी रात वह अचेत पड़ा रहा। माँ बैठी पंखा झलती और रोती रही। दूसरे दिन भी वह बेहोश पड़ा रहा। शीतला उसके पास एक क्षण के लिए भी न आयी। इन्होंने मुझे कौन सोने के कौर खिला दिये हैं, जो इनकी धौंस सहूँ? यहाँ तो ‘जैसे कंता घर रहे, वैसे रहे विदेश।’ किसी कि फूटी कौड़ी नहीं जानती। बहुत ताव दिखाकर तो गए थे। क्या लाद लाए?

संध्या के समय सुरेश को खबर मिली। तुरन्त दौड़े हुए आए। आज दो महीने के बाद इन्होंने इस घर में कदम रखा। विमल ने आँखें खोलीं, पहचान गया। आँखों से आसूँ बहने लगे। सुरेश के मुखारविंद पर दया की ज्योति झलक रही थी। विमल ने उनके बारे में जो अनुचित संदेह किया था, उनके लिए वह अपने को धिक्कार रहा था।

शीतला ने ज्यों ही सुना कि सुरेशसिंह आये हैं, तुरन्त शीशे के सामने गयी, केश छिटका लिए और विषाद की मूर्ति बनी हुई विमल के कमरे में आयी। कहाँ तो विमल की आँखें बन्द थी, मूर्छित-सा पड़ा था। कहाँ शीतला के आते ही आँखें खुल गईं। अग्निमय नेत्रों से उसकी ओर देखकर बोला–अभी आयी है? आज के तीसरे दिन आना। कुँवर साहब से उस दिन फिर भेंट हो जाएगी।

शीतला उलटे-पाँव चली गई। सुरेश पर घड़ों पानी पड़ गया। मन में केवल सोचा–कितना रूप-लावण्य है; पर कितना विषाक्त! हृदय की जगह केवल श्रृंगार-लालसा!

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