कहानी संग्रह >> प्रेम प्रसून ( कहानी-संग्रह ) प्रेम प्रसून ( कहानी-संग्रह )प्रेमचन्द
|
1 पाठकों को प्रिय 93 पाठक हैं |
इन कहानियों में आदर्श को यथार्थ से मिलाने की चेष्टा की गई है
प्रातःकाल से ही कलह आरंभ हो जाता। समधिन समधिन से, साले बहनाई से गुथ जाते। कभी तो अन्न के अभाव से भोजन ही न बनता; कभी भोजन बनने पर भी गाली-गलौज के कारण खाने की नौबत न आती। लड़के दूसरे के खेतों में जाकर गन्ने और मटर खाते; बूढ़ियाँ दूसरों के घर जाकर दुखड़ा रोतीं और ठकुर-सोहाती कहतीं! पुरुष की अनुपस्थिति में स्त्री के मायके वालों का प्राधान्य हो जाता है। इस संग्राम में प्रायः विजय-पताका मायके वालों के हाथ रहती है। किसी भाँति घर में नाज आ जाता तो उसे पीसे कौन! शीतला की माँ कहती, चार दिन के लिए आयी हूँ तो चक्की चलाऊँ? सास कहती, खाने की बेर तो बिल्ली की तरह लपकेंगी, पीसते क्यों जान निकलती है? विवश होकर शीतला को अकेले पीसना पड़ता। भोजन के समय वह महाभारत मचता कि पड़ोस वाले तंग आ आते। शीतला कभी माँ के पैरों पड़ती, कभी सास के चरण पकड़ती; लेकिन दोनों ही उसे झिड़क देतीं। माँ कहती, तूने यहाँ बुलाकर हमारा पानी उतार लिया। सास कहती, मेरी छाती पर सौत लाकर बैठा दी, अब बातें बनाती है। इस घोर विवाद में शीतला अपना विरह-शोक भूल गई। सारी अमंगल शंकाएँ इस विरोधाग्नि में शान्त हो गईं। बस, यही चिंता थी कि इस दशा से छुटकारा कैसे हो? माँ और सास, दोनों ही का यमराज के सिवा और कहीं ठिकाना न था; पर यमराज उनका स्वागत करने के लिए बहुत उत्सुक नहीं जान पड़ते थे। सैकड़ों उपाय सोचती; पर उस पथिक की भाँति, जो दिन-भर चलकर भी अपने द्वार ही पर खड़ा हो, उसकी सोचने की शक्ति निश्चल हो गई थी। चारों तरफ निगाहें दौड़ाती कि कहीं कोई शरण का स्थान है? पर कहीं निगाह न जमती।
एक दिन वह इसी नैराश्य की अवस्था में द्वार पर खड़ी थी। मुसीबत में, चित्त की उद्विग्नता में, इंतजार में, द्वार से प्रेम-सा हो जाता है। सहसा उसने बाबू सुरेशसिंह को सामने से घोड़े पर जाते देखा। उसकी आँखें उसकी ओर फिरीं। आँखें मिल गईं। वह झिझकर पीछे हट गई। किवाड़ें बन्द कर लिए। कुँवर साहब आगे बढ़ गये। शीतला को खेद हुआ कि उन्होंने मुझे देख लिया। मेरे सिर पर साड़ी फटी हुई थी, चारों तरफ उसमें पेबंद लगे हुए थे! वह अपने मन में न जाने क्या कहते होंगे!
|