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प्रेम प्रसून ( कहानी-संग्रह )

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :286
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8588
आईएसबीएन :978-1-61301-115

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इन कहानियों में आदर्श को यथार्थ से मिलाने की चेष्टा की गई है


विमल–अदावत तो नहीं थी, मगर कौन जाने उनकी नीयत बिगड़ गई हो। मुझ पर कोई अपराध लगाकर मेरी जगह-जमीन पर हाथ बढ़ाना चाहते हों। तुमने बड़ा अच्छा किया कि सिपाही को उड़नघाई बतायी।

आदमी–मुझसे कहता था कि ठीक-ठीक बता दो, तो ५० रु. तुम्हें भी दिला दूँ। मैंने सोचा, आप तो १,००० रु. की गठरी मारेंगे, और मुझे ५० रु. दिलाने को कहता है। फटकार बता दी।

एक मजदूर–मगर जो २०० रु. देने को कहता, तो सब ठीक-ठीक नाम-ठिकाना बता देते, क्यों? धत् तेरे लालची की।

आदमी–(लज्जित होकर) २०० रु. २,००० रु. भी देता, तो न बताते। मुझे ऐसे विश्वासघात करने वाला मत समझो। जब जी चाहे, परख लो।

मजदूरों में यों वाद-विवाद होता ही रहा, विमल आकर अपनी कोठरी में लेट गया। वह सोचने लगा–अब क्या करूँ? जब सुरेश-जैसे सज्जन की नीयत बदल गई, तो अब किसका भरोसा करूँ? नहीं, अब बिना घर गये, काम न चलेगा। कुछ दिन और न गया, तो फिर कहीं का न होऊँगा। दो साल और रह जाता, तो पास में पूरे ५,००० रु. हो जाते। शीतला की इच्छा कुछ तो पूरी हो जाती। अभी तो सब मिलाकर ३,००० रु. ही होंगे। इतने में उसकी अभिलाषा न पूरी होगी। खैर, अभी चलूँ। छह महीने में लौट आऊँगा। अपनी जायदाद तो बच जाएगी। नहीं, छह महीने रहने का क्या काम है।? आने जाने में एक महीना लग जाएगा। घर में पंद्रह दिन से ज्यादा न रहूँगा। वहाँ कौन पूछता है, जाऊँ या रहूँ, मरूँ या जिऊँ; वहाँ तो गहनों से प्रेम है।

इस तरह मन में निश्चय करके वह तीसरे ही दिन रंगून से चल पड़ा।

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