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उपन्यास >> प्रगतिशील

प्रगतिशील

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :258
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8573
आईएसबीएन :9781613011096

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इस लघु उपन्यास में आचार-संहिता पर प्रगतिशीलता के आघात की ही झलक है।


‘‘फिर तुम किस प्रकार श्रेणी में प्रथम आ गये? यह तो विचित्र ही बात हुई।’’

‘‘इसमें विचित्रता की कोई बात नहीं मास्टरजी! मैं जानता हूं यह मेरे कठोर परिश्रम का परिणाम है।’’

मैट्रिक की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण करने से मदन को छात्रवृत्ति प्राप्त हो गई। उसने कॉलेज में विज्ञान विषय ले लिया। मदन के बाबा की लालसा थी कि पोता पढ-लिखकर काम-काज पर लग जाये तो उसका विवाह कर दे। गोपीचन्द ने अब मण्डी में दुकान कर ली थी और बाहर से फल मंगवा कर दिल्ली में बेचने लगा था। दरियागंज का मकान बन गया था और उसका एक फ्लैट किराये पर देकर दूसरे में स्वयं रहने लग गया था। शाहदरे वाला मकान किराये पर दे दिया गया था।

यूनिवर्सिटी में पढ़ता हुआ मदन सर्वथा आधुनिकता के रंग में रंगता जा रहा था। उसके जीवन का दृष्टिकोण वह बन गया था, जिसे व्यावहारिक भाषा में ‘प्रगतिशील’ कहते हैं।

दो वर्ष में इंटरमिडियेट तथा उसके अनन्तर चार वर्ष दिल्ली पौलिटेकनिक इंस्टीट्यूट में इंजीनिरिंग की शिक्षा प्राप्त कर, वह मैकेनिकल इंजनियर बन गया। इस समय उसके बाबा गोपीचन्द ने उससे कहा, ‘‘मदन! अब तो विवाह कर लो?’’

‘बाबा! तनिक काम धन्धा जम जाय तो फिर विवाह की सोचूंगा।’’

‘‘क्या इतना पढ लेने पर भी काम लगने में सन्देह है?’’

‘‘नहीं काम तो...’’ उसने चुटकी बजाते हुए कहा, ‘‘...यों मिल जायगा। किन्तु मैं किसी अच्छी जगह की तलाश में हूं।’’

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