उपन्यास >> प्रगतिशील प्रगतिशीलगुरुदत्त
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इस लघु उपन्यास में आचार-संहिता पर प्रगतिशीलता के आघात की ही झलक है।
वर्तमान युग में ‘प्रगतिशील’ एक पारिभाषिक शब्द हो गया है। इसका अर्थ है योरप के सोलहवीं शताब्दी और उसके परवर्ती मीमांसकों द्वारा बताए हुए मार्ग का अनुकरण करने वाला। इनमें से अधिकांश मीमांसक अनात्मवादी थे। इनके अनात्मवाद के व्यापक प्रचार का कारण था ईसाईमत का अनर्गल आत्मवाद, जो केवल निष्ठा पर आधारित था। बुद्धिवाद के सम्मुख वह स्थिर नहीं रह सका।
ईसाई मतावलम्बियों की अन्ध-निष्ठा ने प्राचीन यूनानी जीवन मीमांसा का विनाश कर दिया था। यूनानी जीवन मीमांसा में अनात्मवाद का विरोध करने की क्षमता थी। उस मीमांसा का संक्षिप्त स्वरूप सुकरात के इन शब्दों में दिखाई देगा, ‘‘सदाचार के अनुवर्तन (यम-नियम-पालन) से सम्यक्ज्ञान उत्पन्न होता है। वह ज्ञान साधारणमनुष्य में उत्पन्न होने वाले सामान्य ज्ञान से भिन्न होता है...सम्यक्ज्ञान उत्कृष्ट गुणयुक्त है। व्यापक विचारों (विवेक) से उसकी उत्पत्ति होती है।’’
सुकरात से भिन्न विचार रखने वाले भी कुछ मीमांसक तो थे परन्तु उस समय चली सुकरात की ही। इनका मार्ग अति कठिन था। ईसाइयों के निष्ठा मार्ग के सामने सदाचार का कठिन मार्ग विलीन हो गया। ईसाई कहते थे, ‘‘ईमान लाओ, फल मिलेगा।’’ ‘बेकन’ इत्यादि भौतिकवादियों के सामने यह निष्ठा भी परास्त हो गई। यह निष्ठा टूटी गैलीलियो इत्यादि वैज्ञानिको के युक्ति तथा प्रमाण से। इस भौतिकवाद के सम्मुख ईसाईयत की निष्ठा थोथी सिद्ध हुई।
भौतिकवाद पनपने लगा और इसने वर्तमान युग के प्रगतिवाद को जन्म दिया। प्रगतिवाद की राजनीति में पराकाष्ठा हुई रूस के बोलशिविकिज़म में तथा अर्थनीति का अन्त हुआ मार्क्स और एंजिलवाद में। समाजशास्त्र में यथार्थ रूप निखरा स्टालिन तथा लेनिन के आचरण में और आचार-मीमांसा में इसने जन्म दिया फ्रायडिज़्म को।
भौतिकवाद से उद्भूत फ्रायडिज़्म का विशद् तथा व्यापक रूप दिखाई दे रहा है अमेरिका के युवक-युवतियों के आचरण में। संसार भोग-विलास का स्थान है, जितना हो सके भोगा जाय, यह प्रत्येक व्यक्ति का आधार बन गया है। इस विचार के साथ-साथ अमेरिका में विरली जनसृष्टि, भूमि की अधिक मात्रा और यन्त्र-युग आदि से भी इस आचार-संहिता की प्रगति-शीलता को प्रबल आश्रय मिला है। यहाँ तक कि वहाँ की समृद्धता का आधार भी इस प्रगतिशीलता को ही समझा जाने लगा है।
इस लघु उपन्यास में आचार-संहिता पर प्रगतिशीलता के आघात की ही झलक है। प्रस्तुत उपन्यास में तो भौतिकवाद की सन्तान प्रगतिवाद का आचार-संहिता पर प्रभाव ही प्रकट करने का यत्न किया गया है।
वर्तमान प्रगतिवाद और इसकी जननी भौतिकता की टक्कर भारतीय आत्मवाद ही ले सकेगा। इतनी क्षमता इसमे ही है। इस आत्मवाद का अर्थ है परमात्मा तथा आत्मा का अस्तित्व, पुनर्जन्म और कर्म-मीमांसा, यम-नियम पर आचरण और परिष्कृत (ऋतम्भरा) प्रज्ञा द्वारा सत्य-ज्ञान का साक्षात्कार अर्थात् विवेक। वास्तविक प्रगति जिसके लिए मानव शताब्दियों से तरस रहा है, वह यूरोपीय भौतिकवादी मीमांसकों द्वारा प्रचारित ‘प्रगति’ नहीं।
ये हैं इस उपन्यास के भाव। पात्र और घटनाएं काल्पनिक हैं। इनका किसी देश अथवा जातिविशेष की निन्दा अथवा प्रशंसा से किंचित् भी सम्बन्ध नहीं। यह तो विचारों की विश्लेषणात्मक व्याख्या-मात्र है।
प्रथम परिच्छेद
1
‘‘बाबा, ये कौन हैं?’’
‘‘बेटा! बहुत बड़े लोग हैं।’’
‘‘बड़े क्या होते हैं बाबा?’’
‘‘जो बड़े होते हैं।’’
बच्चा समझ नहीं सका। वह अपने बाबा का मुख देखता रह गया। प्रश्न पूछने वाला तीन-चार वर्ष का लड़का, तन-बदन से नंगा, मिट्टी से लथ-पथ, एक बहुत ही छोटे से, मैले-कुचैले मकान के बाहर खड़े एक प्रौढ़ावस्था के व्यक्ति से पूछ रहा था। यह अकेला मकान दिल्ली से पांच मील के अन्तर पर शाहदरा के बाहर, ग्राण्डट्रंक रोड से कुछ दूर हटकर बना हुआ था। जिसके विषय में प्रश्न पूछा गया था वह एक बहुत बढ़िया मोटर में चमचमाते कपड़े पहन कर आया था और अपने साथ आई दो स्त्रियों को छोड़कर चला गया था। मोटर गाजियाबाद की ओर से आई थी और उस ओर ही लौट गई।
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