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उपन्यास >> पाणिग्रहण पाणिग्रहणगुरुदत्त
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संस्कारों से सनातन धर्मानुयायी और शिक्षा-दीक्षा तथा संगत का प्रभाव
‘‘पिताजी का मुझसे ऐसा काम लेना मेरे साथ अन्याय करना था। मै फेल हुआ था, इन्द्र पास हुआ था। उसको और उसके पिता को बधाई का तार भेजने के लिये मुझको कहा जाना रुचिकर नहीं था।’’
‘‘बहुत मूर्ख हो तुम! यह ईर्ष्या और द्वेष बहुत ही नीच प्रकृति के मनुष्यों का काम है। तुम फेल हुए तो अपने किये से। उसका दण्ड तुमने मुझको दिया। मेरी लड़की को बधाई नहीं भेजी।’’
‘‘माँ! बहन को बधाई न जाने से इन्द्र फेल नहीं हो गया। मैं फेल ही इन्द्र के कारण हुआ हूँ।’’
‘‘कैसे?’’
‘‘यह स्वयं पढ़ता रहा है और मुझको बताता नहीं रहा।’’
‘‘क्यों इन्द्र!’’ शिवदत्त ने पूछ लिया।
‘‘मैं इसको कैसे बता सकता था! यह ऐना-इरीन के साथ शराब पीने चला जाया करता था, रात को मदमस्त हो घर आता था और बिना पढ़े सो जाया करता था।’’
इस लांछन को सुनकर माँ भी एक क्षण भौचक रह गई। वह विष्णु के इतने पतन की आशा नहीं करती थी। वह क्रोध के मारे बोली, ‘‘बदमाश कहीं के! दूर हो जाओ मेरे सामने से।’’ इतना कह वह अपने कमरे में चली गई।
विष्णु उठकर अपने कमरे चला आया और फिर दस मिनट पश्चात् वह घर से निकल गया।
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