उपन्यास >> पाणिग्रहण पाणिग्रहणगुरुदत्त
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संस्कारों से सनातन धर्मानुयायी और शिक्षा-दीक्षा तथा संगत का प्रभाव
‘‘तो कहाँ जाओगी?’’
‘‘अपने माता-पिता के घर। और जा भी कहाँ सकती हूँ? वे तो अपनी लड़की पर अविश्वास नहीं कर सकते।’’
‘‘वे क्या करेंगे और क्या नहीं, विचारणीय नहीं। विचारणीय तो यह है कि वहाँ लौट जाने से तुम संदेह की पुष्टि नहीं करोगी क्या?’’
‘‘शारदा इससे चुप कर रही। अब वह पुनः विह्नल हो रोने लगी। वह अपने को सर्वथा बेबस पाती थी। पति और श्वशुर उस पर संदेह करते हैं। माता-पिता के घर जा नहीं सकती। मरने को जी नहीं चाहता। तो क्या करे? कोई मार्ग सूझ नहीं रहा था।
कुछ देर तक उसको शान्त करने के लिये रजनी उसकी पीठ पर प्यार से हाथ फेरती रही। पश्चात् बोली, ‘शारदा! आत्महत्या भीरुओं का काम है। माता-पिता के घर जाने से समस्या सुलझेगी नहीं, प्रत्युत् बिगड़ेगी। यहाँ डटकर बैठी रहो। इन्द्र ने तुम्हारा पाणिग्रहण किया है। तुम्हारा अधिकार है इस घर में रहने का।
‘‘और मैं तुम्हारी सहायता करूँगी।’’
‘‘और दूसरी स्त्रियाँ नहीं करेंगी क्या?’’
‘‘उनके विषय में वे बताएँगी। मैं अपने विषय में ही कह सकती हूँ। तुम पर कोई भी आँच आयेगी तो वह मुझ पर आयेगी।’’
‘‘रजनी में नारीत्व जाग पड़ा था। उसको इस बात का भी दुःख था कि इन्द्र ने उसके कथन को भी अमान्य कर दिया है। वह अपने को उसकी परम हितैषी मानती थी। वह मन में विचार कर रही थी कि वह शारदा के साथ कंधे-से-कंधा मिलाकर कठिनाई का विरोध करेगी।
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