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उपन्यास >> पाणिग्रहण

पाणिग्रहण

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :651
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 8566
आईएसबीएन :9781613011065

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संस्कारों से सनातन धर्मानुयायी और शिक्षा-दीक्षा तथा संगत का प्रभाव


रामाधार ने उसको देखा तो बिना किसी प्रकार की उत्कंठा प्रकट किये अन्य अभ्यागतों से बातें करता रहा। वह रमाकान्त और इन्द्रनारायण के बीच आकर बैठ गया। रमाकान्त, जिसको विष्णु के वहाँ से चले आने का कारण पता नहीं था, पूछने लगा, ‘‘मामा! तुम कहाँ चले गये थे?’’

‘‘जहन्नुम में।’’ विष्णु ने कह दिया।

रमाकान्त और इन्द्र हँसने लगे। इस पर विष्णु ने कह दिया, ‘‘इन्द्र! मैं वहाँ, मेरा मतलब है, तुम्हारी ससुराल, एक विशेष मतलब से गया था। मैं तुमको और तुम्हारे पिता को इस आवारा लड़की को घर लाने से मना करने गया था। मैं चाहता था कि तुमको प्रमाण देकर यह विवाह भंग करवा देता, परन्तु माँ ने और जीजाजी ने तो मुझको ही वहाँ से भगा दिया।’’

इन्द्र विस्मय में विष्णु का मुख देखने लगा। विष्णु ने आगे कह दिया, ‘‘विश्वास नहीं होता न? तो सुनो। मैंने तुम्हारी पत्नी को देखा है। उसके चिबुक पर तिल का चिह्न है। उसके बायें हाथ पर भी एक छोटा सा तिल है और...। और आज नहीं बताऊँगा। इतने मात्र से समझ सकते हो कि मैं तुम्हारी बीवी से मिला हूँ और कितने ही और भी मिले हैं। अब तुम भीतर जाकर उसको देख लो तो बात करूँगा।’’

रमाकान्त तो इस बात को सुन क्रोध से लाल-पीला होने लगा, परन्तु इन्द्र ने उसके कंधे पर हाथ रख उसको शान्त करते हुए कहा, ‘‘विष्णु! तुम यह सब बात उस दिन रायसाहब के घर पर क्यों नहीं बताई? तुमने यह कहकर बात क्यों टाल दी कि यह तुम्हारा रहस्य है?’’

‘‘उस दिन कहता तो तुमको विश्वास नहीं होता। साथ ही मुझको विश्वास था कि तुम्हारी नानी मुझको साथ ले जायेगी। वह नहीं लायी तो स्वयं वहाँ पहुँच गया, परन्तु मुझको भगा दिया गया। अब फिर आया हूँ असली बात बताने के लिए।’’

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