उपन्यास >> पाणिग्रहण पाणिग्रहणगुरुदत्त
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संस्कारों से सनातन धर्मानुयायी और शिक्षा-दीक्षा तथा संगत का प्रभाव
‘‘उस वक्त तो मैंने दिल पर पत्थर रखकर सब्र कर लिया। मगर पीछे दूसरी बेगम का भी वही वक्त आया तो मैंने उसको हस्पताल ले जाने से इन्कार कर दिया। खुदा की कुदरत, उसको भी वही तकलीफ हो गयी, जो अनवर की माँ को हुई थी। जब बुखार हुआ तो गाँव की दाई ने कह दिया, ‘जेर का कुछ हिस्सा अन्दर रह गया है।’ मैं यह बात सुनकर काँप उठा। मैंने दाई से पूछा, ‘‘तो इसके लिये चीर-फाड़ की जरूरत होगी?’
‘लाहौल-विला-कुवत!’ दाई ने कह दिया।
‘‘वह बाजार गयी और पाँच-दस जड़ी-बूटियाँ मोल ले आई। उनका काढ़ा बनाया और दो बार पिलाया। वह जेर का हिस्सा बाहर निकला अथवा नहीं, यह मैं नहीं जानता। हाँ, बेगम का बुखार कुछ घण्टों में ही जाता रहा। वह कई वर्ष तक हरम की रौनक बनी रही। यह तो मेरी बदनसीबी समझो कि बच्चा और मेरी दूसरी दोनों बेगम दोनों ही चले गये। बच्चे के पैदा होने के पाँच साल के बाद दोनों को ताऊन हुई और दोनों चल बसे।’’
इन्द्र नवाब की बातें सुनकर गम्भीर विचार में पड़ गया। ऐसी अनेक घटनाएँ हस्पताल में नित्य-प्रति हुआ करती थीं। अभी कुछ ही महीने पहले हस्पताल में एक लड़की का देहान्त हुआ था। उसका देहान्त डॉक्टर की गलती से माना जा रहा था।
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