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उपन्यास >> निर्मला (उपन्यास)

निर्मला (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :304
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8556
आईएसबीएन :978-1-61301-175

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अद्भुत कथाशिल्पी प्रेमचंद की कृति ‘निर्मला’ दहेज प्रथा की पृष्ठभूमि में भारतीय नारी की विवशताओं का चित्रण करने वाला एक सशक्तम उपन्यास है…


सियाराम ने इस कथन का अनुमोदन किया-कहती हैं, मुझे दिक करोगे तो कान काट लूँगी। कहती हैं, कि नहीं जिया?

निर्मला अपने कमरे से बोली-मैंने कब कहा था कि तुम्हारे कान काट लूँगी। अभी से झूठ बोलने लगे?

इतना सुनना था, कि तोताराम ने सियाराम के दोनों कान पकड़कर उठा लिया।

लड़का जोर से चीख मारकर रोने लगा।

रुक्मिणी ने दौड़कर बच्चे को मुंशीजी के हाथ से छुड़ा लिया और बोली-बस रहने भी दो, क्या बच्चे को मार डालोगे? हाय-हाय! कान लाल हो गया। सच कहा है, नयी बीवी पाकर आदमी अन्धा हो जाता है। अभी से यह हाल है, तो इस घर के भगवान ही मालिक हैं।

निर्मला अपनी विजय पर मन-ही-मन प्रसन्न हो रही थी, लेकिन जब मुंशी जी ने बच्चे का कान पकड़कर उठा लिया, तो उससे न रहा गया। छुड़ाने को दौड़ी; पर रुक्मिणी पहले ही पहुँच गयी थीं। बोली-पहले आग लगा दी, अब बुझाने दौड़ी हो जब अपने लड़के होंगे, तब आँखें खुलेंगी। पराई पीर क्या जानो?

निर्मला–खड़े तो हैं, पूछ लो न, मैंने क्या आग लगा दी? मैंने इतना ही कहा था कि लड़के मुझे पैसों के लिए बार-बार दिक करते हैं। इसके सिवाय जो मेरे मुँह से कुछ निकला हो, तो मेरी आँखें फूट जायँ।

तोता–मैं खुद इन लौंड़ों की शरारत देखा करता हूँ, अन्धा थोड़ा ही हूँ। तीनों जिद्दी और शरीर हो गये हैं। बड़े मियाँ को तो मैंने आज ही होस्टल में भेजता हूँ।

रुक्मिणी–अब तक तुम्हें इनकी कोई शरारत न सूझी थी, आज आँखें क्यों इतना तेज हो गयीं?

तोताराम–तुम्हीं ने इन्हें इतना शोख कर रखा है।

रुक्मिण-तो मैं ही विष की गाँठ हूँ। मेरे ही कारण तुम्हारा घर चौपट हो रहा है। लो, मैं जाती हँ; तुम्हारे लड़के हैं, मारो चाहो काटो, न बोलूँगी।

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