लोगों की राय

उपन्यास >> निर्मला (उपन्यास)

निर्मला (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :304
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8556
आईएसबीएन :978-1-61301-175

Like this Hindi book 2 पाठकों को प्रिय

364 पाठक हैं

अद्भुत कथाशिल्पी प्रेमचंद की कृति ‘निर्मला’ दहेज प्रथा की पृष्ठभूमि में भारतीय नारी की विवशताओं का चित्रण करने वाला एक सशक्तम उपन्यास है…


मोटेराम–अजी, बहुत नौकरी हैं। कहार तो आजकल ढूँढ़े नहीं मिलते। तुम तो पुराने आदमी हो, तुम्हारे लिए नौकरी की क्या कमी है। यहाँ कोई ताजी चीज? मुझसे कहने लगे, खिचड़ी बनाइएगा या बाटी लगाइएगा? मैंने कह दिया-सरकार, बुड्ढा आदमी है, रात को उसे मेरा भोजन बनाने में कष्ट होगा, मैं कुछ बाजार ही से खा लूँगा। इसकी आप चिन्ता न करें। बोले, अच्छी बात है, कहार आपको दुकान पर मिलेगा। बोलो साहजी, कुछ तर माल तैयार है? लड्डू तो ताजे मालूम होते हैं। तौल दो एक सेर भर। आ जाऊँ वही ऊपर न?

यह कहकर मोटेराम जी हलवाई की दूकान पर जा बैठे और तर माल चखने लगे। खूब छककर खाया। ढाई-तीन सेर चट कर गये खाते जाते थे और हलवाई की तारीफ करते जाते थे-साहजी, तुम्हारी दूकान का जैसा नाम सुना था, वैसा ही माल भी पाया। बनारसवाले ऐसे रसगुल्ले नहीं बना पाते, कलाकन्द अच्छी बनाते हैं। पर तुम्हारी उनसे बुरी नहीं। माल डालने से अच्छी चीज नहीं बन जाती, विद्या चाहिए।

हलवाई–कुछ और लीजिए महराज! थोड़ी-सी रबड़ी मेरी तरफ से लीजिए।

मोटेराम–इच्छा तो नहीं है, लेकिन दे दो पाव-भर।

हलवाई–पाव भर क्या लीजिएगा? चीज अच्छी है, आध सेर तो लीजिए।

खूब इच्छा पूर्ण भोजन करके पंडितजी ने थोड़ी देर तक बाजार की सैर की, और नौ बजते-बजते मकान पर आये। यहाँ सन्नाटा-सा छाया हुआ था। एक लालटेन जल रही थी। आपने चबूतरे पर बिस्तर जमाया और सो गये।

सबेरे अपने नियमानुसार कोई आठ बजे उठे, तो देखा कि बाबूसाहब टहल रहे हैं। इन्हें जगा देखकर वह पालागन कर बोले-महाराज, आप रात को कहाँ चले गये? मैं बड़ी रात तक आपकी राह देखता रहा। भोजन का सब सामान बड़ी देर तक रखा रहा। जब आप न आये तो रखवा दिया गया। आपने कुछ भोजन किया था या नहीं?

मोटे–हलवाई की दूकान में कुछ खा आया था।

भाल–अजी पूरी-मिठाई में वह आनन्द कहाँ जो बाटी और दाल में है। दस-बारह आने खर्च हो गये होंगे, फिर भी पेट न भरा होगा, आप मेरे मेहमान हैं, जितने पैसे लगे हों ले लीजिएगा।

मोटे–आप ही के हलवाई की दूकान पर खाया था; वह जो नुक्कड़ पर बैठता है।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book