उपन्यास >> निर्मला (उपन्यास) निर्मला (उपन्यास)प्रेमचन्द
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अद्भुत कथाशिल्पी प्रेमचंद की कृति ‘निर्मला’ दहेज प्रथा की पृष्ठभूमि में भारतीय नारी की विवशताओं का चित्रण करने वाला एक सशक्तम उपन्यास है…
साधु–निश्चय नहीं कह सकता। किसी समय आ जाऊंगा।
साधु आगे बढ़े, तो थोड़ी ही दूर पर उन्हें एक दूसरा साधु मिला। उसका नाम था हरिहरानन्द।
परमानन्द से पूछा–कहां-कहां की सैर की? कोई शिकार फंसा?
हरिहरानन्द–इधर चारों तरफ घूम आया, कोई शिकार न मिला एकाध मिला भी, तो मेरी हंसी उड़ाने लगा।
परमानन्द–मुझे तो एक मिलता हुआ जान पड़ता है! फंस जाये तो जानूं।
हरिहरानन्द–तुम यों ही कहा करते हो। जो आता है, दो-एक दिन के बाद निकल भागता है।
परमानन्द–अबकी न भागेगा, देख लेना। इसकी मां मर गयी है। बाप ने दूसरा विवाह कर लिया है। मां भी सताया करती है। घर से ऊबा हुआ है।
हरिहरानन्द–खूब अच्छी तरह। यही तरकीब सबसे अच्छी है। पहले इसका पता लगा लेना चाहिए कि मुहल्ले में किन-किन घरों में विमाताएं हैं? उन्हीं घरों में फन्दा डालना चाहिए।
२२
निर्मला ने बिगड़कर कहा–इतनी देर कहां लगायी?
सियाराम ने ढिठाई से कहा–रास्ते में एक जगह सो गया था।
निर्मला–यह तो मैं नहीं कहती, पर जानते हो कै बज गये हैं? दस कभी के बज गये। बाजार कुछ दूर भी तो नहीं है।
सियाराम–कुछ दूर नहीं। दरवाजे ही पर तो है।
निर्मला–सीधे से क्यों नहीं बोलते? ऐसा बिगड़ रहे हो, जैसे मेरा ही कोई कामे करने गये हो?
सियाराम–तो आप व्यर्थ की बकवास क्यों करती हैं? लिया सौदा लौटाना क्या आसान काम है? बनिये से घंटों हुज्जत करनी पड़ी यह तो कहो, एक बाबाजी ने कह-सुनकर फेरवा दिया, नहीं तो किसी तरह न फेरता। रास्ते में कहीं एक मिनट भी न रुका, सीधा चला आता हूं।
निर्मला–घी के लिए गये-गये, तो तुम ग्यारह बजे लौटे हो, लकड़ी के लिए जाओगे, तो सांझ ही कर दोगे। तुम्हारे बाबूजी बिना खाये ही चले गये। तुम्हें इतनी देर लगाना था, तो पहले ही क्यों न कह दिया? जाते ही लकड़ी के लिए।
सियाराम अब अपने को संभाल न सका। झल्लाकर बोला–लकड़ी किसी और से मंगाइए। मुझे स्कूल जाने को देर हो रही है।
निर्मला–खाना न खाओगे?
सियाराम–न खाऊंगा।
निर्मला–मैं खाना बनाने को तैयार हूं। हां, लकड़ी लाने नहीं जा सकती।
सियाराम–भूंगी को क्यों नहीं भेजती?
निर्मला–भूंगी का लाया सौदा तुमने कभी देखा नहीं हैं?
सियाराम–तो मैं इस वक्त न जाऊंगा।
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