लोगों की राय

उपन्यास >> मनोरमा (उपन्यास)

मनोरमा (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :283
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8534
आईएसबीएन :978-1-61301-172

Like this Hindi book 4 पाठकों को प्रिय

274 पाठक हैं

‘मनोरमा’ प्रेमचंद का सामाजिक उपन्यास है।


चक्रधर बड़े असमंजस में पड़े। मनोरमा से ऐसी बातें करते उन्हें संकोच होता था। डरते थे कि कहीं ठाकुर साहब को खबर मिल जाय-सरला मनोरमा ही कह दे-तो वह समझेंगे, मैं इसके सामाजिक विचारों में क्रान्ति पैदा करना चाहता हूं। अब तक उन्हें ज्ञान न था कि ठाकुर साहब किन विचारों के आदमी हैं। हां, उनके गंगा-स्नान से यह आभास होता था कि वह सनातन-धर्म के भक्त हैं। सिर झुकाकर बोले-मनोरमा, हमारे यहाँ विवाह का आधार प्रेम और इच्छा पर नहीं, धर्म और कर्तव्य पर रखा गया है। इच्छा चंचल है, क्षण-क्षण में बदलती रहती है। कर्तव्य स्थायी है, उसमें कभी पविर्तन नहीं होता।

सहसा घर के अन्दर से किसी के कर्कश शब्द कान में आये, फिर लौंगी का रोना सुनायी दिया। चक्रधर ने पूछा-यह तो लौगीं रो रही है?

मनोरमा– जी हां! आपसे तो भाई साहब की भेंट नहीं हुई? गुरुसेवक सिंह नाम है। कई महीनों से देहात में जमींदारी का काम करते हैं। हैं तो मेरे सगे भाई और पढ़े-लिखे भी खूब हैं, लेकिन भलमनसी छू भी नहीं गई। जब आते हैं, लौंगी अम्मा से झूठ-मूठ तकरार करते हैं। न जाने उससे इन्हें क्या अदावत है।

इतने मैं गुरुसेवकसिंह लाल-लाल आंखें किये निकल आये और मनोरमा से बोले-बाबूजी कहां गये हैं? तुझे मालूम है कब तक आयेंगे। मैं आज ही फैसला कर लेना चाहता हूं। चक्रधर को बैठे देखकर वह कुछ झिझके और अन्दर लौटना ही चाहते थे। कि लौंगी रोती हुई आकर चक्रधर के पास खड़ी हो गयी और बोली-बाबूजी, इन्हें समझाइए कि मैं अब बुढ़ापे में कहां जाऊं? इतनी उम्र तो इनमें कटी, अब किसके द्वार पर जाऊँ? मैंने इन्हें अपना दूध पिलाकर पाला है, मालकिन के दूध न होता था, और अब मुझे घर से निकालने पर तुले हुए हैं।

गुरु सेवकसिंह की इच्छा तो न थी कि चक्रधर से इस कलह के सम्बन्ध में कुछ कहें; लेकिन जब लौंगी ने उन्हें पंच बनाने से संकोच न किया तो वह खुल पड़े।

बोले-महाशय इससे यह पूछिए कि अब यह बुढ़िया हुई, इसके मरने के दिन आये, क्यों नहीं किसी तीर्थस्थान में जाकर अपने कलुषित जीवन के बचे हुए दिन काटती? मरते दम तक घर की स्वामिनी बनी रहना चाहती है। दादाजी भी सठिया गये हैं, उन्हें मानापमान की जरा भी फिक्र नहीं। इसने उन पर न जाने क्या मोहिनी डाल दी है कि इनके पीछे मुझसे लड़ने पर तैयार रहते हैं। आज मैं निश्चय करके आया हूं कि इसे घर के बाहर निकाल कर ही छोड़ूँगा। या तो यह किसी दूसरे मकान में रहे, या किसी तीर्थ-स्थान को प्रस्थान करे।

लौंगी– तो बच्चा सुनो, जब तक मालिक जीता है, लौंगी इसी घर में रहेगी और इसी तरह रहेगी। जब वह न रहेगा, तो जो कुछ सिर पर पड़ेगी, झेल लूंगी। मैं लौंड़ी नहीं हूं कि घर से बाहर जाकर रहूं। तुम्हें यह कहते लज्जा नहीं आती? चार भांवरे फिर जाने से ही ब्याह नहीं हो जाता। मैंने अपने मालिक की जितनी सेवा की है और करने को तैयार हूं, उतनी कौन ब्याहता करेगी? लाये तो हो बहू, कभी उठकर एक लुटिया पानी भी देती है? नाम से कोई ब्याहता नहीं होती, सेवा और प्रेम से होती है।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book