उपन्यास >> मनोरमा (उपन्यास) मनोरमा (उपन्यास)प्रेमचन्द
|
4 पाठकों को प्रिय 274 पाठक हैं |
‘मनोरमा’ प्रेमचंद का सामाजिक उपन्यास है।
ठाकुर साहब ने गरजकर कहा– ऐसी क्या बात है, जिसको कहने की इतनी जल्दी है। इन बेचारों को देर हो रही है। कुछ निठल्ले थोड़े ही हैं कि बैठे-बैठे औरतों का रोना सुना करें। जा, अन्दर बैठ!
यह कहकर ठाकुर साहब उठ खड़े हुए, मानो मुंशीजी को विदा कर रहे हैं। वह वसुमती को उनसे बातें करने का अवसर न देना चाहते थे। मुंशीजी को भी अब विवश होकर विदा मांगनी पड़ी।
मुंशीजी यहां से चले, तो उनके मन में यह शंका समायी हुई थी कि ठाकुर साहब कहीं मुझसे नाराज तो नहीं हो गये। हां, इतना सन्तोष था कि मैंने कोई बुरा काम नहीं किया। इस विचार से मुंशी जी और अकड़कर घोड़े पर बैठ गये। वह इतने खुश थे मानों हवा में उड़ रहे हैं। उनकी आत्मा कभी इतनी गौरवोन्मत्त न हुई थी। चिन्ताओं को कभी उन्होंने इतना तुच्छ न समझा था।
५
चक्रधर की कीर्ति उनसे पहले ही बनारस पहुंच चुकी थी। उनके मित्र और अन्य लोग उनसे मिलने के लिए उत्सुक हो रहे थे। जब वह पांचवे दिन घर पहुंचे तो लोग मिलने और बधाई देने आ पहुँचे। नगर का सभ्य-समाज मुक्तकंठ से उनकी तारीफ कर रहा था। यद्यपि गम्भीर आदमी थे, पर अपनी कीर्ति की प्रशंसा से उन्हें सच्चा आनन्द मिल रहा था। और लोग तो तारीफ कर रहे थे, मुंशी वज्रधर लड़के की नादानी पर बिगड़ रहे थे। निर्मला तो इतना बिगड़ी कि चक्रधर से बात न करना चाहती थी।
शाम को चक्रधर मनोरमा के घर गये। वह बगीचे में दौड़-दौड़कर हजारे से पौधों को सींच रही थी। पानी से कपड़े लथपथ हो गये थे। उन्हें देखते ही हजारा फेंककर दौड़ी और पास आकर बोली-आप कब आये, बाबू जी! मैं पत्रों में रोज वहां का समाचार देखती थी और सोचती की कि आप वहाँ आयेंगे, तो आपकी पूजा करूँगी। आप न होते तो वहां जरूर दंगा हो जाता। आप को बिगड़े हुए मुसलमानों के सामने अकेले जाते हुए जरा भी शंका न हुई?
चक्रधर ने कुर्सी पर बैठते हुए कहा– जरा भी नहीं! मुझे तो यही धुन थी कि इस वक्त कुरबानी न होने दूंगा, इसके सिवा दिल में और खयाल न था। मैं तो यही कहूंगा कि मुसलमानों को लोग नाहक बदनाम करते हैं। फिसाद से वे भी उतना ही डरते हैं, जितना हिन्दू? शान्ति की इच्छा भी उनमें हिन्दुओं से कम नहीं है?
मनोरमा– मैंने तो जब पढ़ा कि आप उन बौखलाये हुए आदमियों के सामने निःशंक भाव से खड़े थे, तो मेरे रोंगटे खड़े हो गए। मैं उस समय वहां होती, तो आपको पकड़कर खींच लाती। अच्छा, तो बतलाइए कि आपसे वधूजी ने क्या बातें कीं? (मुस्कराकर) मैं तो जानती हूं, आपने कोई बातचीत न की होगी, चुपचाप लजाये बैठे रहे होंगे?
चक्रधर शरम से सिर झुकाकर बोले-हां, मनोरमा हुआ तो ऐसा ही! मेरी समझ में ही न आता था कि बातें क्या करूँ? उसने दो-एक बार कुछ बोलने का साहस भी किया…
मनोरमा– आपको देखकर खुश तो बहुत हुई होंगी?
चक्रधर– (शरमाकर) किसी के मन का हाल मैं क्या जानू।
मनोरमा ने अत्यन्त सरल भाव से कहा– सब मालूम हो जाता है। आप मुझसे बता नहीं रहे हैं। कम-से-कम इच्छा तो मालूम हो गई होगी। मैं तो समझती हूं जो विवाह लड़की की इच्छा के विरुद्घ किया जाता है वह विवाह ही नहीं है। आपका क्या विचार है?
|