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उपन्यास >> कायाकल्प

कायाकल्प

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :778
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8516
आईएसबीएन :978-1-61301-086

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राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....


झिनकू–अच्छा, अब की मैं भी कोई ऐसी ही चीज़ सुनाता हूँ, मगर मज़ा जब है कि हारमोनियम तुम्हारे हाथ में हो।

मुंशीजी सितार, सारंगी, सरोद, इसराज सब कुछ बजा लेते थे, पर हारमोनियम पर तो कमाल ही करते थे। हारमोनियम में सितार की गतों को बजाना उन्हीं का काम था। बाजा लेकर बैठ गए और झिनकू ने मधुर स्वरों से यह असावरी गानी शुरू की–

बसी जिय में तिरछी मुसकान।
कल न परत घड़ि, पल, छिन, निसि दिन रहत उन्हीं का ध्यान,
भृकुटि धनु-सी देख सखी री, नयना बान समान।


झिनकू संगीत का आचार्य था, जाति का कथक, अच्छे-अच्छे उस्तादों की आँखें देखे हुए, आवाज़ इस बुढ़ापे में भी ऐसी रसीली कि दिल पर चोट करे, इसपर उनका भाव बताना, जो कथकों की खास सिफ़त है, और भी ग़ज़ब ढाता था, लेकिन मुंशी वज्रधर की अब राज-दरबार में रसाई हो गई थी, उन्हें अब झिनकू को शिक्षा देने का अधिकार हो गया था। हारमोनियम बजाते-बजाते नाक सिकोड़कर बोले–ऊँह, क्या बिगाड़ देते हो, बेताल हुए जाते हो। हाँ, अब ठीक हैं।

यह कहकर आपने झिनकू के साथ स्वर मिलाकर गाया–

बसी जिय में तिरछी मुसकान।
कल न परत घड़ि, पल, छिन, निसि दिन रहत उन्हीं का ध्यान,
भृकुटि धनु-सी देख सखी री, नयना बान समान।

इतने में एक युवक कोट-पतलून पहने, ऐनक लगाए, मूँछ मुड़ाए, बाल सँवारे आकर बैठ गया। मुंशीजी ने पूछा–तुम कौन हो भाई? मुझसे कुछ काम है?

युवक–मैंने सुना है कि जगदीशपुर में किसी एकाउंटैण्ट की जगह खाली है, आप सिफ़ारिश कर दें, तो शायद वह जगह मुझे मिल जाए। मैं भी कायस्थ हूँ, और बिरादरी के नाते आपके ऊपर मेरा बहुत बड़ा हक है। मेरे पिताजी कुछ दिनों आपकी मातहती में काम कर चुके हैं। आपकों मुंशी सुखवासीलाल का नाम तो याद होगा।

मुंशी–तो आप बिरादरी और दोस्ती के नाते नौकरी चाहते हैं, अपनी लियाक़त के नाते नहीं! यह मेरे अख़्तियार के बाहर है। मैं न दीवान हूँ, न मुहाफ़िज, न मुंसरिम। उन लोगों के पास जाइए।

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