उपन्यास >> कायाकल्प कायाकल्पप्रेमचन्द
|
320 पाठक हैं |
राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....
मनोरमा–मैं तो समझती हूँ कि जो दिन खाने-पहनने, सैर-तमाशे के होते हैं, अगर वे किसी ग़रीब आदमी के साथ चक्की चलाने और चौका बरतन करने में कट गए तो जीवन का सुख ही क्या? हाँ, इतना मैं अवश्य कहूँगी कि उम्र का एक साल एक लाख से कम मूल्य नहीं रखता।
यह कहकर मनोरमा चली गयी। उसके जाने के बाद दीवान साहब कई मिनट तक ज़मीन की ओर ताकते रहे। अन्त में लौंगी से बोले–तुमने इसकी बातें सुनीं?
लौंगी–सुनीं क्यों नहीं, क्या बहरी हूँ?
ठाकुर–फिर?
लौंगी–फिर क्या, लड़के हैं, जो मुँह में आया बकते हैं, उनके बकने से क्या होता है। माँ-बाप का क्या धर्म है कि लड़कों के हित ही की करें। लड़का माहुर माँगे तो क्या माँ-बाप उसे माहुर दे देंगे? कहिए मुंशीजी!
मुंशी–हाँ, यह तो ठीक है; लेकिन जब लड़के अपना भला-बुरा समझने लगें, तो उनका रुख देखकर ही काम करना चाहिए।
लौंगी–जब तक माँ-बाप जीते हैं, तब तक लड़कों को बोलने का अख़्तियार ही क्या है? आप जाकर राजा साहब से यही कह दीजिए।
मुंशी–दीवान साहब, आपका भी यही फैसला है?
ठाकुर–साहब, मैं इस विषय में सोचकर जवाब दूँगा। हाँ, आप मेरे दोस्त हैं; इस नाते आपसे इतना कहता हूँ कि आप कुछ इस तरह गोल-मोल बातें कीजिए कि मुझ पर कोई इल्ज़ाम न आने पाए। आपने तो बहुत दिनों अफ़सरी की है, और अफ़सर लोग ऐसी बातें करने में निपुण भी होते हैं।
मुंशीजी मन में लौंगी को गालियाँ देते हुए यहाँ से चले। जब फाटक के पास पहुँचे, तो देखा कि मनोरमा एक वृक्ष के नीचे घास पर लेटी हुई है। उन्हें देखते ही वह उठकर खड़ी हो गई। मुंशीजी ज़रा ठिठक गए और बोले–क्यों मनोरमा रानी, तुमने जो मुझे सलाह दी, उस पर खुद अमल कर सकती हो?
मनोरमा ने शर्म से सुर्ख़ होकर कहा–यह तो मेरे माता-पिता के निश्चय करने की बात है।
मुंशीजी ने सोचा, अगर जाकर राजा साहब से कह देता हूँ कि दीवान साहब ने साफ़ इनकार कर दिया, तो मेरी किरकिरी होती है। राजा साहब कहेंगे; फिर गये ही किस बिरते पर थे? शायद यह भी समझें कि इसे मामला तय करने की तमीज़ ही नहीं। तहसीलदारी नहीं की, भाड़ झोंकता रहा, इसलिए आपने जाकर दून की हाँकनी शुरू की–हज़ूर, बुढ़िया बला की चुड़ैल है, हत्थे पर तो आती ही नहीं, इधर भी झुकती है, उधर भी; और दीवान साहब तो निरे मिट्टी के ढेले हैं।
|