उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास) कर्मभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…
‘तू यह क़ानून कब से जान गयी।’
‘न्याय क्या है और अन्याय क्या है, यह सिखाना नहीं पड़ता। बच्चे को भी बेकसूर सजा दो, तो वह चुपचाप न सहेगा।'
‘मालूम होता है, भाई से यही विद्या सीखती है।’
‘भाई से अगर न्याय-अन्याय का ज्ञान सीखती हूँ, तो कोई बुराई नहीं।’
‘अच्छा भाई, सिर मत खा, कह दिया अन्दर जा। मैं किसी को मनाने-समझाने नहीं जाता। मेरा घर है, इसकी सारी सम्पदा मेरी है। मैंने इसके लिए जान खपाई है। किसी को क्यों ले जाने दूँ?’
नैना ने सहसा सिर झुका लिया जैसे दिल पर ज़ोर डालकर कहा–‘तो फिर मैं भी भाभी के साथ चली जाऊँगी।’
लालाजी की मुद्रा कठोर हो गयी–‘चली जा, मैं नहीं रोकता। ऐसी सन्तान से बेसन्तान रहना ही अच्छा। खाली कर दो मेरा घर, आज ही खाली कर दो। खूब टाँगे फैलाकर सोऊँगा। कोई चिन्ता तो न होगी। आज यह नहीं है, आज वह नहीं है, यह तो न सुनना पड़ेगा। तुम्हारे रहने से कौन सुख था मुझे?’
नैना लाल आँखें किए सुखदा से जाकर बोली–‘भाभी, मैं भी तुम्हारे साथ चलूँगी।’
सुखदा ने अविश्वास के स्वर में कहा–‘हमारे साथ! हमारा तो अभी कहीं घर-द्वार नहीं है। न पास पैसे हैं, न बरतन-भाँडें, न नौकर-चाकर। हमारे साथ कैसे चलोगी? इस महल में कौन रहेगा?’
नैना की आँखें भर आयीं–‘जब तुम्हीं जा रही हो, तो मेरा यहाँ क्या है?’
पगली सिल्लो आयी और ठट्ठा मारकर बोली–‘तुम सब जने चले जाओ, अब मैं इस घर की रानी बनूँगी। इस कमरे में इसी पलंग पर मजे से सोऊँगी। कोई भिखारी द्वार पर आयेगा तो झाडू लेकर दौड़ूँगी।’
अमर पगली के दिल की बात समझ रहा था पर इतना बड़ा खटला लेकर कैसे जाय? घर में एक ही तो रहने लायक कोठरी है। वहाँ नैना कहाँ रहेगी और यह पगली तो जीना मुहाल कर देगी। नैना से बोला– ‘तुम हमारे साथ चलोगी, तो दादा का खाना कौन बनायेगा नैना? फिर हम कहीं दूर तो नहीं जाते हैं। मैं वादा करता हूँ, एक बार रोज़ तुमसे मिलने आया करूँगा। तुम और सिल्लो दोनों रहो। हमें जाने दो।’
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