उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास) कर्मभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…
गूदड़ ने हार मानकर कहा–‘तो भैया, इतना बता तो अब मुझमें नहीं रहा कि दिनभर काम करूँ और रातभर दौड़ लगाऊँ। काम न करूँ, तो भोजन कहाँ से आये?’
अमरकान्त ने उसे हिम्मत हारते देखकर सहास मुख से कहा–‘कितना बड़ा पेट है तुम्हारा दादा कि सारे दिन काम करना पड़ता है। अगर इतना बड़ा पेट है, तो उसे छोटा करना पड़ेगा।’
काशी और पयाग ने देखा कि इस वक़्त सबके ऊपर फटकार पड़ रही है, तो वहाँ से खिसक गये।
पाठशाले का समय आ गया था। अमरकान्त अपनी कोठरी में किताब लेने गया, तो देखा मुन्नी दूध लिए खड़ी है बोला–‘मैंने तो कह दिया था, मैं दूध न पिऊँगा, फिर क्यों लायी?’
आज कई दिनों से मुन्नी अमर के व्यवहार में एक प्रकार की शुष्कता का अनुभव कर रही थी। उसे देखकर उसके मुख पर उल्लास की झलक नहीं आती। उससे अब बिना विशेष प्रयोजन के बोलता भी कम है। उसे ऐसा जान पड़ता है कि यह मुझसे भागता है। इसका कारण वह कुछ समझ सकती। यह काँटा उसके मन में कई दिन से खटक रहा है। आज वह इस काँटे को निकाल डालेगी।
उसने अविचलित भाव से कहा–‘क्यों नहीं पियोगे, सुनूँ?’
अमर पुस्तकों का एक बण्डल उठाता हुआ बोला– ‘अपनी इच्छा है। नहीं पीता–तुम्हें मैं कष्ट नहीं देना चाहता।’
मुन्नी ने तिरछी आँखों से देखा–‘यह तुम्हें कब से मालूम हुआ कि तुम्हारे लिए दूध लाने में मुझे बहुत कष्ट होता है। और अगर किसी को कष्ट उठाने ही में सुख मिलता हो तो?’
अमर ने हारकर कहा–‘अच्छा भाई, झगड़ा न करो; लाओ पी लूँ।’
एक ही साँस में सारा दूध कड़वी दवा की तरह पीकर अमर चलने लगा, तो मुन्नी ने द्वार छोड़कर कहा– ‘बिना अपराध के तो किसी को सज़ा नहीं दी जाती।’
अमर द्वार पर ठिठककर बोला–‘तुम तो जाने क्या बक रही हो। मुझे देर हो रही है।’
मुन्नी ने विरक्त भाव धारण किया–‘तो मैं तुम्हें रोक तो नहीं रही हूँ, जाते क्यों नहीं?’
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