उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास) कर्मभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…
लेकिन पत्र लिखे चार दिन हो गये, कोई जवाब नहीं। अब डॉक्टर साहब के सिर पर एक बोझ–सा सवार हो गया। दिनभर डाकिए की राह देखा करते, पर कोई ख़बर नहीं। यह बात क्या है? क्या अमर कहीं दूसरी जगह तो नहीं चला गया? सलीम ने पता तो ग़लत नहीं बता दिया? हरिद्वार से तीसरे दिन जवाब आना चाहिए। उसका आठ दिन हो गये। कितनी ताकीद कर दी थी कि तुरन्त जवाब लिखना। कहीं बीमार तो नहीं हो गया। दूसरा पत्र लिखने का साहस न होता था। पूरे दस पन्ने कौन लिखे। वह पत्र भी कुछ ऐसा-वैसा पत्र न था। शहर का सालभर का इतिहास था। वैसा पत्र फिर न बनेगा। पूरे तीन घण्टे लगे थे। इधर आठ दिन से सलीम भी नहीं आया। वह तो अब दूसरी दुनिया में है। अपने आई.सी. एस. की धुन है। यहाँ क्यों आने लगा? मुझे देखकर शायद आँखें चुराने लगे। स्वार्थ भी ईश्वर ने क्या पैदा की है। कहाँ तो नौकरी के नाम से घृणा थी। नौजवान सभा के भी मेम्बर,कांग्रेस के भी नम्बर। जहाँ देखिए. मौजूद। और मामूली मेम्बर नहीं, प्रमुख भाग लेने वाला। कहाँ अब आई. सी. एस. की पड़ी हुई है। बचा पास तो क्या होंगे, वहाँ धोखाधड़ी नहीं चलने की, मगर नामिनेशन तो हो ही जायेगा। हाफ़िज़जी पूरा ज़ोर लगायेंगे! एक इम्तहान में भी तो पास न हो सकता था। कहीं परचे उड़ाये, कहीं-कहीं नकल की, कहीं रिश्वत दी, पक्का शोहदा है। और ऐसे लोग आई.सी. एस. होंगे।
सहसा सलीम की मोटर आयी और सलीम ने उतरकर हाथ मिलाते हुए कहा–‘अब तो आप अच्छे मालूम होते हैं। चलने–फिरने में तो दिक्कत नहीं होती?’
शान्तिकुमार ने शिकवे के अन्दाज़ से कहा–मुझे दिक्कत होती है या नहीं होती, तुम्हें इससे मतलब! महीने भर के बाद तुम्हारी सूरत नज़र आयी है। तुम्हें क्या फ़िक्र कि मैं मरा या जीता हूँ। मुसीबत में कौन साथ देता है। तुमने कोई नयी बात नहीं की!’
‘नहीं डॉक्टर साहब, आजकल इम्तहान के झंझट में पड़ा हुआ है, मुझे तो इससे नफ़रत है। खुदा जानता है, नौकरी से मेरी रूह काँपती है, लेकिन करूँ क्या? अब्बाजान हाथ धोकर पीछे पड़े हुए हैं। वह तो आप जानते ही है, मैं एक सीधा जुमला ठीक नहीं लिख सकता, मगर लियाक़त कौन देखता है? यहाँ तो सनद देखी जाती है। जो अफसरों का रुख देखकर काम कर सकता है, उसके लायक होने में शुबहा नहीं। आजकल यही फ़न सीख रहा हूँ।’
शान्तिकुमार ने मुस्कराकर कहा–‘मुबारक हो, लेकिन आई.सी.एस. की सनद आसान नहीं है।’
सलीम ने कुछ इस भाव से कहा, जिससे टपक रहा था, आप इन बातों को क्या जानें–‘जी हाँ लेकिन सलीम भी इस फन में उस्ताद है। बी. ए. तक तो बच्चों का खेल था। आई.सी. एस. में ही मेरे कमाल का इम्तहान होगा। सबसे नीचे मेरा नाम गजट में न निकले तो मुँह न दिखाऊँ। चाहूँ तो सबसे ऊपर भी आ सकता हूँ, मगर फ़ायदा क्या? रुपये तो बराबर ही मिलेंगे।’
शान्तिकुमार ने पूछा–‘तो तुम भी गरीबों का ख़ून चूसोगे क्या?’
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