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कर्मभूमि (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :658
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8511
आईएसबीएन :978-1-61301-084

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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…


सुखदा ने इस सम्भावना की कभी कल्पना ही न की थी।

विमूढ़ होकर बोली–‘दीवाला क्यों पिटने लगा?’

‘ऐसा सम्भव तो है।’

सुखदा ने माँ की सम्प्रति का आश्रय न लिया। वह न कह सकी, ‘तुम्हारे पास जो कुछ है, वह भी तो मेरा ही है।’ आत्मसम्मान ने उसे ऐसा न कहने दिया। माँ के इस निर्दयी प्रश्न पर झुँझला कर बोला–‘जब मौत आती है, तो आदमी मर जाता है। जानबूझकर आग में नहीं कूदा जाता।’

बातों-बातों में माता को ज्ञात हो गया कि उनकी सम्पत्ति का वारिस आने वाला है। कन्या के भविष्य के विषय में उन्हें बड़ी चिन्ता हो गयी थी। इस संवाद ने उस चिन्ता का शमन कर दिया।

 उसने आनन्द से विह्वल होकर सुखदा को गले लगा लिया।

अमरकान्त ने अपने जीवन में माता के स्नेह का सुख न जाना था। जब उसकी माता का अवसान हुआ, तब वह बहुत छोटा था। उस दूर अतीत की कुछ धुँधली-सी और इसीलिए अत्यन्त मनोहर और सुखद-स्मृतियाँ शेष थीं। उसका वेदनामय बाल-रुदन सुनकर जैसे उसकी माता ने रेणुका देवी के रूप में स्वर्ग से आकर उसे गोद में उठा लिया। बालक अपना रोना-धोना भूल गया और उस ममता-भरी गोद में मुँह छिपाकर दैवी सुख लूटने लगा। अमरकान्त नहीं-नहीं करता रहता और माता उसे पकड़कर उसके आगे मेवे और मिठाइयाँ रख देतीं। उससे इनकार न करते बनता। वह देखता, माता उसके लिए कभी कुछ पका रही हैं, कभी कुछ; और उसे खिलाकर कितनी प्रसन्न होती हैं, तो उसके हृदय में श्रद्धा की एक लहर-सी उठने लगती है। वह कालेज से लौटकर सीधे रेणुका के पास जाता। वहाँ उसके लिए जलपान रखे हुए रेणुका उसकी बाट जोहती रहतीं। प्रातः का नाश्ता भी वह वहीं करता। इस मातृ-स्नेह से उसको तृप्ति ही नहीं होती थी। छुट्टियों के दिन वह प्रायः दिनभर रेणुका ही के यहाँ रहता। उसके साथ कभी-कभी नैना भी चली जाती। वह खासकर पशु-पक्षियों की क्रीड़ा देखने जाती थी।

अमरकान्त के कोष में स्नेह आया, तो उसकी कृपणता जाती रही। सुखदा उसके समीप आने लगी। उसकी विलासिता से अब उसे इतना भय न रहा। रेणुका के साथ उसे लेकर वह सैर-तमाशे के लिए भी जाने लगा। रेणुका दसवें-पाँचवें उसे दस-बीस रुपये ज़रूर दे देतीं। उसके सप्रेम आग्रह के सामने अमरकान्त की एक न चलती। उसके लिए नए-नए सूट बने, नए-नए जूते आये, मोटरसाइकिल आयी, सजावट के सामान आये। पाँच-छः महीने में ही वह विलासिता का द्रोही, वह सरल जीवन का उपासक, अच्छा खासा रईसज़ादा बन बैठा, रईसज़ादों के भावों और विचारों से भरा हुआ; उतना ही निर्द्वन्द्व और स्वार्थी। उसकी जेब में दस-बीस रुपये हमेशा पड़े रहते। खुद खाता, मित्रों को खिलाता और एक ही जगह दो खर्च करता। वह अध्ययनशीलता जाती रही। ताश और चौसर में ज़्यादा आनन्द आता। हाँ, जलसों में उसे अब और अधिक उत्साह हो गया। वहाँ उसे कीर्ति-लाभ का अवसर मिलता था। बोलने की शक्ति उसमें पहले भी बुरी न थी। अभ्यास से और भी परिमार्जित हो गयी। दैनिक समाचार और सामयिक-साहित्य से भी उसे रुचि थी, विषेशकर इसलिए कि रेणुका रोज़-रोज़ की खबरें उससे पढ़वाकर सुनती थीं।

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