उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास) कर्मभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…
रेणुका चिन्तित होकर बोलीं–‘मैंने तो अपनी समझ में घर-वर दोनों ही देखभाल कर विवाह किया था; मगर तेरी तक़दीर को क्या करती। लड़के से तेरी अब पटती है, या वही हाल है?’
सुखदा फिर लज्जित हो गयी। उसके दोनों कपोललाल हो गये। सिर झुकाकर बोली–‘उन्हें अपनी किताबों और सभाओं से छुट्टी नहीं मिलती।’
‘तेरी जैसी रूपवती एक सीधे-सादे छोकरे को भी न सँभाल सकी? चाल-चलन का कैसा है?’
सुखदा जानती थी; अमरकान्त में इस तरह की कोई दुर्वसना नहीं है; पर इस समय वह इस बात को निश्चयात्मक रूप से कह सकी। उसके नारीत्व पर धब्बा आता था। बोली–‘मैं किसी के दिल का हाल क्या जानूँ अम्माँ। इतने दिन हो गये, एक दिन भी ऐसे न हुआ होगा कि कोई चीज़ लाकर देते। जैसे चाहूँ रहूँ, उनसे कोई मतलब ही नहीं।’
रेणुका ने पूछा–‘तू कभी पूछती है, कुछ बनाकर खिलाती है, कभी उसके सिर में तेल डालती है?’
सुखदा ने गर्व से कहा–‘जब वह मेरी बात नहीं पूछते, तो मुझे क्या ग़रज़ पड़ी है। वह बोलते हैं, तो मैं भी बोलती हूँ। मुझसे किसी की गुलामी नहीं होगी।’
रेणुका ने ताड़ना दी–‘बेटी, बुरा न मानना, मुझे तो बहुत-कुछ तेरा ही दोष दीखता है। तुझे अपने रूप का गर्व है। तू समझती है, वह तेरे रूप पर मुग्ध होकर तेरे पैरों पर सिर रगड़ेगा। ऐसे मर्द होते हैं, यह मैं जानती हूँ; पर वह प्रेम टिकाऊ नहीं होता। न जाने तू क्यों उससे तनी रहती है। मुझे तो बड़ा ग़रीब और बहुत ही विचारशील मालूम होता है। सच कहती हूँ, मुझे उस पर दया आती है। बचपन में बेचारे की माँ मर गयी। विमाता मिली, वह डाइन, बाप हो गया शत्रु। घर को अपना घर न समझ सका। जो हृदय चिन्ता-भार से इतना दबा हुआ हो, उसे पहले स्नेह और सेवा से पोला करने के बाद तभी प्रेम का बीज बोया जा सकता है।’
सुखदा चिढ़कर बोली–‘वह चाहते हैं मैं उनके साथ तपस्विनी बनकर रहूँ। रूखा-सूखा खाऊँ, मोटा-झोटा पहनूँ और वह घर से अलग होकर मेहनत और मजूरी करें। मुझसे यह न होगा, चाहे सदैव के लिए उनसे नाता ही टूट जाए। वह अपने मन की करेंगे, मेरे आराम-तकलीफ़ की बिल्कुल परवाह न करेंगे, तो मैं भी उनका मुँह न जोहूँगी।’
रेणुका ने तिरस्कार-भरी चितवनों से देखा और बोलीं– ‘और अगर आज लाला समरकान्त का दीवाला पिट जाय?’
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