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उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास)

कर्मभूमि (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :658
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8511
आईएसबीएन :978-1-61301-084

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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…


सुखदा ने देखा, इस युवती का हृदय कितना निष्कपट है। कुछ निराश होकर बोली–‘यही तो मरदों के हथकण्डे हैं। पहले तो देवता बन जायेंगे, जैसे सारी शराफ़त इन्हीं पर ख़तम है, फिर तोतों की तरह आँखें फेर लेंगे।’

सकीना ने ढिठाई के साथ कहा–‘ बहन, बनने से कोई देवता नहीं हो जाता। आपकी उम्र चाहे साल दो साल मुझसे ज़्यादा हो, लेकिन मैं इस मुआमले में आपसे ज़्यादा तज़रबा रखती हूँ। यह मैं घमण्ड से नहीं कहती, शर्म से कहती हूँ। खुदा न करे ग़रीब की लड़की हसीन हो। ग़रीब में हुस्न बला है, वहाँ बड़ों का तो कहना ही क्या, छोटों की रसाई भी आसानी से हो जाती है। अम्माँ बड़ी पारसा हैं, मुझे देवी समझती होंगी। किसी जवान को दरवाज़े पर खड़ा नहीं होने देती; लेकिन इस वक़्त बात आ पड़ी है, तो कहना पड़ता है कि मुझे मरदों को देखने और परखने के काफ़ी मौक़े मिले हैं। सभी ने मुझे दिल–बहलाव की चीज़ समझा और मेरी ग़रीबी से अपना मतलब निकालना चाहा। अगर किसी ने मुझे इज़्ज़त की निगाह से देखा, तो वह बाबूजी थे। मैं खुदा को गवाह करके कहती हूँ कि उन्होंने मुझे एक बार भी ऐसी निगाहों से नहीं देखा और न एक क़लमा भी ऐसा मुँह से निकाला, जिससे छिछोरेपन की बू आयी हो। उन्होंने मुझे निकाह की दावत दी। मैंने उसे मंजूर कर लिया। जब तक वह खुद उस दावत को रद्द न कर दे, मैं उसकी पाबन्द हूँ, चाहे मुझे उम्रभर यों ही रहना पड़े। चार-पाँच बार की मुख्तसर मुलाक़ातों में मुझे उन पर इतना एतबार हो गया है कि मैं उम्र भर उनके नाम पर बैठी रह सकती हूँ। मैं अब पछताती हूँ कि क्यों न उनके साथ चली गयी। मेरे रहने से उन्हें कुछ तो आराम होता। कुछ तो उनकी ख़िदमत कर सकती। इसका तो मुझे यकीन है कि उन पर रंग का जादू नहीं चल सकता। हूर भी आ जाय, तो उसकी तरफ़ आँखें उठाकर न देखेंगे, लेकिन ख़िदमत और मुहब्बत का जादू उन पर बड़ी आसानी से चल सकता है। यही खौफ़ है। मैं आपसे सच्चे दिल से कहती हूँ बहन, मेरे लिए इससे बड़ी ख़ुशी की बात नहीं हो सकती कि आप और वह फिर मिल जायँ, आपस का मनमुटाव दूर हो जाय। मैं उस हालत में और भी खुश रहूँगी मैं उनके साथ न गयी, इसका यही सबब था, लेकिन बुरा न मानो तो एक बात कहूँ।’

वह चुप होकर सुखदा के उत्तर का इंतजार करने लगी। सुखदा ने आश्वासन दिया–‘तुम जितनी साफ़ दिली से बातें कर रही हो, उससे अब मुझे तुम्हारी कोई बात भी बुरी न मालूम होगी। शौक से कहो।’

सकीना ने धन्यवाद देते हुए कहा–‘अब तो उनका पता मालूम हो गया है, आप एक बार उनके पास चली जायँ। वह खिदमत के गुलाम हैं और खिदमत से ही आप उन्हें अपना सकती हैं।’

सुखदा ने पूछा–‘बस, या और कुछ?’

‘बस, और मैं आपको क्या समझाऊँगी, आप मुझसे कहीं ज़्यादा समझदार हैं।’

‘उन्होंने मेरे साथ विश्वासघात किया है। मैं ऐसे कमीने आदमी की ख़ुशामद नहीं कर सकती। अगर आज मैं किसी मर्द के साथ भाग जाऊँ, तो तुम समझती हो, वह मुझे मनाने जायेंगे? वह शायद मेरी गरदन काटने जायँ। मैं औरत हूँ और औरत का दिल इतना कड़ा नहीं होता, लेकिन उनकी खुशामद तो मैं मरते दम नहीं कर सकती।’

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