उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास) कर्मभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…
मैं तुम्हें घर दिखाकर कहीं चली जाऊँगी। ऐसी अच्छी शादी हो रही थी, उसने मंजूर ही न किया। मैं भी चुप हूँ, देखूँ कब तक उसके नाम को बैठी रहती है। मेरे जीते-जी तो लाला घर में कदम रखने न पायेंगे। हाँ, पीछे को नहीं कह सकती।’
सुखदा ने छेड़ा–‘किसी दिन उनका खत आ जाय और सकीना चली जाय, तो क्या करोगी?’
बुढ़िया आँखें निकालकर बोली–‘मजाल है कि इस तरह चली जाय। ख़ून पी जाऊँ।’
सुखदा ने फिर छेड़ा–‘जब वह मुसलमान होने को कहते हैं, तब तुम्हें क्या इन्कार है?’
पठानिन ने कानों पर हाथ रखकर कहा–‘अरे बेटा! जिसका ज़िन्दगी भर नमक खाया, उसका घर उजाड़कर अपना घर बनाऊँ? यह शरीफों का काम नहीं है। मेरी तो समझ ही में नहीं आता, छोकरी में क्या देखकर भैया रीझ पड़े।’
अपना घर दिखाकर पठानिन तो पड़ोस के घर में चली गयी, दोनों युवतियों ने सकीना के द्वार की कुण्डी खटखटायी। सकीना ने उठकर द्वार खोल दिया। दोनों को देखकर वह घबड़ा–सी गयी। जैसे कहीं भागना चाहती है। कहाँ बैठाये, क्या सत्कार करे!
सुखदा ने कहा–‘तुम परेशान न हो बहन, हम इस खाट पर बैठ जाते हैं। तुम तो जैसे घुलती जाती हो। एक बेवफ़ा मर्द के चकमें में पड़कर क्या जान दे दोगी?’
सकीना का पीला चेहरा शर्म से लाल हो गया। उसे ऐसा जान पड़ा कि सुखदा मुझसे जवाब तलब कर रही है–‘ तुमने मेरा बना-बनाया घर क्यों उजाड़ दिया?’ इसका सकीना के पास कोई जवाब न था। वह कांड कुछ इस आकस्मिक रूप से हुआ कि वह स्वयं कुछ न समझ सकी। पहले बादल का एक टुकड़ा आकाश के एक कोने में दिखाई दिया। देखते-देखते सारा आकाश मेघाच्छन्न हो गया और ऐसे ज़ोर की आँधी चली कि वह खुद उसमें उड़ गयी। वह क्या बताये कैसे क्या हुआ बादल के उस टुकड़े को देखकर कौन कह सकता था, आँधी आ रही है।
उसने सिर झुकाकर कहा–‘औरत की ज़िन्दगी और है ही किसलिए बहनजी! वह अपने दिल से लाचार है, जिससे वफ़ा की उम्मीद करती है, वही दगा करता है। उसका क्या अख्तियार? लेकिन बेवफ़ाओं से मुहब्बत न हो, तो मुहब्बत में मजा ही क्या रहे। शिकवा-शिकाय़त, रोना-धोना बेताबी और बेकरारी यही तो मुहब्बत में मज़े हैं, फिर मैं तो वफ़ा की उम्मीद भी नहीं करती थी। मैं उस वक़्त भी इतना जानती थी कि यह आँधी दो-चार घड़ी की मेहमान है, लेकिन मेरी तस्कीन के लिए तो इतना ही काफ़ी था कि जिस आदमी की मैं दिल में सबसे ज़्यादा इज़्ज़त करने लगी थी, उसने मुझे इस लायक तो समझा। मैं इस काग़ज़ की नाव पर बैठकर भी सागर को पार कर दूँगी।’
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