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उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास)

कर्मभूमि (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :658
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8511
आईएसबीएन :978-1-61301-084

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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…


दिन भर के परिश्रम के बाद अमर लेटा हुआ एक उपन्यास पढ़ रहा था कि मुन्नी आकर खड़ी हो गयी। अमर पढ़ने में इतना लिप्त था कि मुन्नी के आने की उसको ख़बर न हुई। राजस्थान की वीर नारियों के बलिदान की कथा थी, उस उज्ज्वल बलिदान की जिसकी संसार के इतिहास में कहीं मिसाल नहीं है, जिसे पढ़कर आज भी हमारी गर्दन गर्व से उठ जाती है। जीवन को किसने इतना तुच्छ समझा होगा! कुल-मर्यादा की रक्षा का ऐसा अलौकिक आदर्श और कहाँ मिलेगा? आज का बुद्धिवाद उन वीर माताओं पर चाहे जितना कीचड़ फेंक ले, हमारे श्रद्धा उनके चरणों पर सदैव सिर झुकाती रहेगी।

मुन्नी चुपचाप खड़ी अमर के मुख की ओर ताकती रही। मेघ का वह अल्पांश जो आज एक साल हुए उसके हृदय-आकाश में पक्षी की भाँति उड़ता हुआ आ गया था, धीरे-धीरे सम्पूर्ण आकाश पर छाया गया था। अतीत की ज्वाला में झुलसी हुई कामनाएं इस शीतल छाया में फिर हरी होती जाती थीं। वह शुष्क जीवन उद्यान की भाँति सौरभ और विकास से लहराने लगा है। औरों के लिए तो उसकी देवरानियाँ भोजन पकातीं, अमर के लिए वह खुद रोटियाँ पकाती है। बेचारे दो तो रोटियाँ खाते हैं, और यह गंवारिने मोटे-मोटे लिट्ट बनाकर रख देती हैं। अमर उससे कोई काम करने को कहता, तो उसके मुख पर आनन्द की ज्योति-सी झलक उठती। वह एक नये स्वर्ग की कल्पना करने लगती–एक नये आनन्द का स्वप्न देखने लगती।

एक दिन सलोनी ने उनसे मुस्कराकर कहा–‘अमर भैया तेरे ही भाग से यहाँ आ गये मुन्नी। अब तेरे दिन फिरेंगे।’

मुन्नी ने हर्ष को जैसे मुट्ठी में दबाकर कहा–‘क्या कहती हो काकी, कहाँ मैं, कहाँ वह। मुझसे कई साल छोटे होंगे। फिर ऐसे विद्वान, ऐसे चतुर! मैं तो उनकी जूतियों के बराबर भी नहीं।’

काकी ने कहा था–‘यह सब ठीक है मुन्नी, पर तेरा जादू उन पर चल गया है; यह मैं देख रही हूँ। संकोची आदमी मालूम होते हैं, इससे तुझसे कुछ कहते नहीं; पर तू उनके मन में समा गयी है, विश्वास मान। क्या तुझे इतना भी नहीं सूझता। तुझे उनकी सरम दूर करनी पड़ेगी।’

मुन्नी ने पुलकित होकर कहा–‘तुम्हारी असीस है काकी, तो मेरा मनोरथ भी पूरा हो जायेगा।’

मुन्नी एक क्षण अमर को देखती रही तब झोंपड़ी में जाकर उसकी खाट निकाल लायी। अमर का ध्यान टूटा। बोला–‘रहने दो, मैं अभी बिछाये लेता हूँ। तुम मेरा इतना दुलार करोगी मुन्नी, तो मैं आलसी हो जाऊँगा। आओ, तुम्हें हिन्दू देवियों की कथा सुनाऊँ।’

‘कोई कहानी है क्या?’

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