उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास) कर्मभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…
मुन्नी ने उसकी ओर कोप-दृष्टि से देखा–‘जान उन्हें प्यारी होती है, जो नीच हैं और नीच बने रहना चाहते हैं। जिसमें लाज है, जो किसी के सामने सिर नहीं नीचा करना चाहता, वह ऐसी बात पर जान भी दे सकता है।’
पयाग ने ताना मारा–‘उनका बड़ा पच्छ कर रही हो भाभी, क्या सगाई की ठहर गयी है?’
मुन्नी ने आहत कण्ठ से कहा–‘दादा, तुम सुन रहे हो इनकी बातें, और मुँह नहीं खोलते। उनसे सगाई ही कर लूँगी, तो क्या तुम्हारी हँसी हो जायेगी? और जब मेरे मन में वह बात आ जायेगी, तो कोई रोक भी न सकेगा। अब इसी बात पर मैं देखती हूँ कि कैसे घर में सिकार जाता है। पहले मेरी गर्दन पर गँड़ासा चलेगा?’
मुन्नी बीच में घुसकर गाय के पास बैठ गयी और ललकार कर बोली–‘अब जिसे गँड़ासा चलाना हो चलाये, बैठी हूँ।’
पयाग ने कातर भाव से कहा–‘हत्या के बल खेलती-खाती हो और क्या!’
मुन्नी बोली–‘तुम्हीं जैसों ने बिरादरी को इतना बदनाम कर दिया है। उस पर कोई समझाता है तो लड़ने को तैयार होते हो।’
गूदड़ चौधरी गहरे विचारों में डूबे थे। दुनिया में हवा किस तरफ़ चल रही है, इसकी भी उन्हें कुछ ख़बर थी। कई बार इस विषय पर अमरकान्त से बातचीत कर चुके थे। गम्भीर भाव से बोले–‘भाइयों, यहाँ गाँव के सब आदमी जमा हैं। बताओ, अब क्या सलाह है?’
एक चौड़ी छाती वाला युवक बोला–‘सलाह जो तुम्हारी है, वही सबकी है। चौधरी तो तुम हो।’
पयाग ने अपने बाप को विचलित होते देख, दूसरों को ललकारकर कहा–‘खड़े मुँह क्या ताकते हो, इतने जने तो हो। क्यों नहीं मुन्नी का हाथ पकड़कर हटा देते? मैं गँड़ासा लिए खड़ा हूँ।’
मुन्नी ने क्रोध से कहा–‘मेरा ही माँस खा जाओगे, तो कौन हरज है? वह भी तो माँस ही है।’
और किसी को आगे बढ़ते न देखकर पयाग ने ख़ुद आगे बढ़कर मुन्नी का हाथ पकड़ लिया और उसे वहाँ से घसीटना चाहता था कि काशी ने उसे ज़ोर का धक्का दिया और लाल आँखें करके बोला–‘भैया, अगर उसकी देह पर हाथ रखा, तो ख़ून हो जायेगा–कहे देता हूँ। हमारे घर में इस गऊ माँस की गन्ध तक न जाने पायेगी। आये वहाँ से बड़े वीर बनकर!’ चौड़ी छाती वाला युवक मध्यस्थ बनकर बोला–‘मरी गाय के माँस में ऐसा कौन-सा मज़ा रखा है, जिसके लिए सब जने मरे जा रहे हो। गड्ढा खोदकर के माँस गाड़ दो, खाल निकाल लो। वह भी जब अमर भैया की सलाह है। हमको तो उन्हीं की सलाह पर चलना है। उनकी राह पर चलकर हमारा उद्धार हो जायेगा। सारी दुनिया हमें इसीलिए तो अछूत समझती है कि हम दारू-शराब पीते हैं, मुरदा-माँस खाते हैं और चमड़े का काम करते हैं। और हममें क्या बुराई है? दारू-शराब हमने छोड़ ही दी–हमने क्या छोड़ दी समय न छुड़वा दी–फिर मुरदा-माँस में क्या रखा है? रहा चमड़े का काम, उसे कोई बुरा नहीं कह सकता, और अगर कहे भी तो हमें उसकी परवाह नहीं। चमड़ा बनाना-बेचना कोई बुरा काम नहीं है।’
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