उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास) कर्मभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…
‘एक कौड़ी।’
इतनी देर में वह लोग और समीप आ गये। चौधरी सेनापति की भाँति आगे-आगे लपके चले आते थे।
मुन्नी ने आगे बढ़कर कहा–‘ला तो रहे हो; लेकिन लाला भागे जा रहे हैं।’
गूदड़ ने कुतूहल से पूछा–‘क्यों! क्या हुआ है?’
‘यही गाय की बात है। कहते हैं, मैं तुम लोगों के हाथ का पानी न पियूँगा।’
पयाग ने अकड़कर कहा–‘बकने दो। न पियेंगे हमारे हाथ का पानी, तो हम छोटे न हो जायेंगे।’
काशी बोला–‘आज बहुत दिन बाद शिकार मिला है। उसमें भी यह बाधा!’
गूदड़ ने समझौते के भाव से कहा–‘आख़िर कहते क्या हैं?
मुन्नी झुँझलाकर बोली–‘अब उन्हीं से जाकर पूछो। जो चीज़ और किसी ऊँची जात वाले नहीं खाते, उसे हम क्यों खाएँ, इसी से तो लोग हमें नीच समझते हैं।’
पयाग ने आवेश में कहा– ‘तो हम कौन किसी बाह्मन-ठाकुर के घर बेटी ब्याहने जाते हैं। बाह्मनों की तरह किसी के द्वार पर भीख माँगने तो नहीं जाते! यह तो अपना-अपना रिवाज है।’
मुन्नी ने डाँट बताई–‘यह कोई अच्छी बात है सब लोग हमें नीच समझें, जीभ के सवाद के लिए?’
गाय वहीं रख दी गयी। दो-तीन आदमी गँडासे लेने दौड़े। अमर खड़ा देख रहा था कि मुन्नी मना कर रही है; पर कोई उसकी सुन नहीं रहा है। उसने उधर से मुँह फेर लिया, जैसे उसे कै हो जायेगी। मुँह फेर लेने पर भी वही दृश्य उसकी आँखों में फिरने लगा। इस सत्य को वह कैसे भूल जाय कि उससे पचास क़दम पर मुर्दा गाय की बोटियाँ की जा रही हैं। वह उठकर गंगा की ओर भागा।
गूदड़ ने उसे गंगा की ओर जाते देखकर चिन्तित भाव से कहा–‘वह तो सचमुच में गंगा की ओर भागे जा रहे हैं। बड़ा सनकी आदमी है। कहीं डूब-डाब न जाए।’
पयाग बोला–‘तुम अपना काम करो, कोई नहीं डूबे-डाबेगा। किसी को जान इतनी भारी नहीं होती।’
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