उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास) कर्मभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…
पाठशाला बन्द हुई। अमर तेजा और दुर्जन की उँगली पकड़े हुए आकर चौधरी से बोला–‘मुझे तो आज देर हो गयी दादा, तुमने खा-पी लिया न?’
चौधरी स्नेह में डूब गये–‘हाँ और क्या, मैं ही तो पहर रात जुता हुआ हूँ; मैं ही तो जूते लेकर रिसीकेस गया था। इस तरह जान दोगे, तो मुझे तुम्हारी पाठशाला बन्द करनी पड़ेगी।’
अमर की पाठशाला में अब लड़कियाँ भी पढ़ने लगी थीं। उसके आनन्द का वारापार न था।
भोजन करके चौधरी सोये अमर चलने लगा, तो मुन्नी ने कहा–‘आज तो लाला तुमने बड़ा भारी पाला मारा! दादा ने आज एक घूँट भी नहीं पी।’
अमर उछलकर बोला–‘कुछ कहते थे?’
‘तुम्हारा जस गाते थे, और क्या कहते। मैं तो समझती थी, मरकर ही छोड़ेंगे; पर तुम्हारा उपदेश काम कर गया!’
अमर के मन में कई दिन से मुन्नी का वृत्तान्त पूछने की इच्छा हो रही थी; पर अवसर न पाता था। आज मौका पाकर उसने पूछा–‘तुम मुझे नहीं पहचानती हो; लेकिन मैं तुम्हें पहचानता हूँ।’
मुन्नी के मुख का रंग उड़ गया। उसने चुभती हुई आँखों से अमर को देखकर कहा–‘तुमने कह दिया, तो मुझे याद आ रहा है, तुम्हें कहीं देखा है।’
‘काशी के मुकदमें की बात याद करो।’
‘अच्छा, हाँ याद आ गया। तुम्हीं डॉक्टर साहब के साथ रुपये जमा करते फिरते थे; मगर तुम यहाँ कैसे आ गये?’
‘पिताजी से लड़ाई हो गयी। तुम यहाँ कैसी पहुँची और इन लोगों के बीच में कैसे आ पड़ी?’
मुन्नी घर में जाती हुई बोली–‘फिर कभी बताऊँगी; पर तुम्हारे हाथ जोड़ती हूँ, यहाँ किसी से कुछ न कहना।’
अमर ने अपनी कोठरी में जाकर बिछावन के नीचे से धोतियों का जोड़ा निकाला और सलोनी के घर जा पहुँचा। सलोनी भीतर पड़ी नींद को बुलाने के लिए गा रही थी। अमर की आवाज सुनकर टट्टी खोल दी और बोली–‘क्या है बेटा! आज तो बड़ा अँधेरा है। खाना खा चुके? मैं तो अभी चरखा कात रही थी। पीठ दुखने लगी, तो आकर पड़ रही।’
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