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कर्मभूमि (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :658
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8511
आईएसबीएन :978-1-61301-084

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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…


अमरकान्त की झोंपड़ी में एक लालटेन जल रही है। पाठशाला खुली हुई है। पन्द्रह बीस लड़के खड़े अभिमन्यु की कथा सुन रहे हैं। अमर खड़ा वह कथा कह रहा है। सभी लड़के कितने प्रसन्न हैं। उनके पीले चेहरे चमक रहे हैं, आँखें जगमगा रही हैं। शायद वे भी अभिमन्यु जैसे वीर, वैसे ही कर्त्तव्यपरायण होने का स्वप्न देख रहे हैं। उन्हें क्या मालूम, एक दिन उन्हें दुर्योधनों और जरासन्धों के सामने घुटने टेकने पड़ेंगे, माथे रगड़ने पड़ेंगे, कितनी बार वे चक्रव्यूहों से भागने की चेष्टा करेंगे, और भाग न सकेंगे।

गूदड़ चौधरी चौपाल में बोतल और कुँजी लिए कुछ देर तक विचार में डूबे बैठे रहे। फिर कुँजी फेंक दी। बोतल उठाकर आले पर रख दी और मुन्नी को पुकारकर कहा–‘अमर भैया से कह, आकर खाना खा ले। इस भले आदमी को जैसे भूख ही नहीं लगती, पहले रात गयी; अभी तक खाने-पीने की सुधि नहीं।’

मुन्नी ने बोतल की ओर देखकर कहा–तुम जब तक पी लो। मैंने तो इसीलिए नहीं बुलाया।’

गूदड़ ने अरुचि से कहा–‘आज तो पीने को जी नहीं चाहता बेटी। कौन बड़ी अच्छी चीज़ है?’

मुन्नी आश्चर्य से चौधरी की ओर ताकने लगी। उसे आये यहाँ तीन साल से अधिक हुए। कभी चौधरी को नागा करते नहीं देखा, कभी उनके मुँह से ऐसी विराग की बात नहीं सुनी। सशंक होकर बोली–‘आज तुम्हारा जी अच्छा नहीं है क्या दादा?’

चौधरी ने हँसकर कहा–‘जी क्यों नहीं अच्छा है। मँगायी तो थी पीने के लिए; पर अब जी नहीं चाहता। अमर भैया की बात आज मेरे मन में बैठ गयी। कहते हैं–जहाँ सौ में अस्सी आदमी भूखों मरते हों, वहाँ दारू ग़रीब का रक्त पीने के बराबर है। कोई दूसरा कहता, तो न मानता; पर उनकी बात न जाने क्यों दिल में बैठ जाती है।’

मुन्नी चिन्तित हो गयी–‘तुम उनके कहने में न आओ, दादा। अब छोड़ना तुम्हें अवगुन करेगा। कहीं देह में दरद न होने लगे।’

चौधरी ने इन विचारों को जैसे तुच्छ समझकर कहा– ‘चाहे दरद हो, चाहे बाई हो, अब पीऊँगा नहीं। ज़िन्दगी में हज़ारों रुपये की दारू पी गया। सारी कमाई नशे में उड़ा दी। उतने रुपये से कोई उपकार का काम करता, तो गाँव का भला होता और जस भी मिलता। मूरख को इसी से बुरा कहा है। साहब लोग सुना है, बहुत पीतें हैं; पर उनकी बात निराली है। यहाँ राज़ करते हैं। लूट का धन मिलता है, वह न पियें, तो कौन पीये। देखती है, अब काशी और पयाग को भी कुछ लिखने-पढ़ने का चस्का होने लगा है।’

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