उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास) कर्मभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…
अमर मुस्कराया–‘और जो पीछे से खुल गया?’
चौधरी का जवाब तैयार था–‘तो हम कह देंगे, हमारे पुरबज छत्तरी थे, हालाँकि अपने को छत्तरी-बंस कहते लाज आती है। सुनते हैं, छत्तरी लोगों ने मुसलमान बादशाहों को अपनी बेटियाँ ब्याही थीं। अभी कुछ जलपान तो न किया होगा भैया? कहाँ गया तेजा! जा, बहू से कुछ जलपान करने को ले आ। भैया, भगवान् का नाम लेकर यहीं टिक जाओ। तीन-चार बीघे सलोनी के पास हैं। दो बीघे हमारे साझे में कर लेना। इतना बहुत है। भगवान दें, तो खाये न चुके।’
लेकिन जब सलोनी बुलायी गयी और उससे चौधरी ने यह प्रस्ताव किया, तो वह बिचक उठी। कठोर मुद्रा से बोली–‘तुम्हारी मंसा है, अपनी ज़मीन इनके नाम कर दूँ और मैं हवा खाऊँ यही तो?’
चौधरी ने हँसकर कहा–‘नहीं-नहीं, ज़मीन तेरे ही नाम रहेगी पगली। यह तो खाली। जोतेंगे यही समझ ले कि तू इन्हें बटायी पर दे रही है।’
सलोनी ने कानों पर हाथ रखकर कहा–‘भैया, अपनी जगह-ज़मीन मैं किसी के नाम नहीं लिखती। यों हमारे पाहुने हैं, दो-चार दस दिन रहें। मुझसे जो कुछ होगा। सेवा सत्कार करूँगी। तुम बटाई पर लेते हो, तो ले लो। जिसको कभी देखा न सुना, न जान, न पहचान, उसे कैसे बटाई पर दे दूँ?’
पयाग ने चौधरी की ओर तिरस्कार–भाव से देखकर कहा–‘भर गया मन, या अभी नहीं? कहते हो औरतें मूरख होती हैं। यह चाहे हमको-तुमको खड़े-खड़े बेच लावे। सलोनी काकी मुँह की ही मीठी है?’
सलोनी तिनक उठी–‘हाँ जी, तुम्हारे कहने से अपने पुरखों की ज़मीन छोड़ दूँ। मेरे ही पेट का लड़का, मुझी को चराने चला है!’
काशी ने सलोनी का पक्ष लिया–‘ठीक तो कहती हैं, बेजाने–सुने आदमी को अपनी ज़मीन कैसे सौंप दे?’
अमरकान्त को इस विवाद में दार्शनिक आनन्द आ रहा था। मुस्कराकर बोला–‘हाँ, काकी, तुम ठीक कहती हो। परदेसी आदमी का क्या भरोसा?’
मुन्नी भी द्वार पर खड़ी यह बातें सुन रही थी। बोली– ‘पगला गयी हो क्या काकी? तुम्हारे खेत कोई सिर पर उठा ले जायेगा? फिर हम लोग तो हैं ही। जब तुम्हारे साथ कोई कपट करेगा, तो हम पूछेंगे नहीं?’
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