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कर्मभूमि (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :658
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8511
आईएसबीएन :978-1-61301-084

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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…


लड़के चले गये, तो अमर लेटा, तीन महीने से लगातार घूमते-घूमते उसका ऊब उठा था। कुछ विश्राम करने का जी ही चाहता था। क्यों न वह इसी गाँव में टिक जाय? यहाँ उसे कौन जानता है? यहीं उसका छोटा-सा घर बन गया। सकीना उस घर में आ गयी, गाय, बैल और अन्त में नींद भी आ गयी।

अमरकान्त सवेरे उठा, मुँह-हाथ धोकर गंगा-स्नान किया और चौधरी से मिलने चला चौधरी का नाम गूदड़ था। इस गाँव में कोई ज़मींदार न रहता था। गूदड़ का द्वार ही चौपाल का काम देता था। अमर ने देखा, नीम के पेड़ के नीचे एक तख़्त पड़ा हुआ है। दो-तीन बाँस की खाटें, दो-तीन पुआल के गद्दे। गूदड़ की उम्र साठ के लगभग थी; मगर अभी टाँठा था। बैलों को सानी-पानी कर रहा था। मुन्नी गोबर निकाल रही थी। तेज़ा और दुरजन दोनों दौड़-दौड़ कुएँ से पानी ला रहे थे। ज़रा पूरब की ओर हटकर दो औरतें बरतन माँज रही थीं। यह दोनों गूदड़ की बहुएँ थीं।

अमर ने चौधरी को राम-राम किया और एक पुआल की गद्दी पर बैठ गया। चौधरी ने पितृभाव से उसका स्वागत किया–‘मजे में खाट पर बैठो भैया। मुन्नी ने रात ही कहा था। अभी आज तो नहीं जा रहे हो? दो-चार दिन रहो, फिर चले जाना। मुन्नी तो कहती थी, तुझको कोई काम मिल जाय तो यहीं टिक जाओगे।’

अमर ने सकुचाते हुए कहा–‘हाँ; कुछ विचार तो ऐसा मन में आया था।’

गूदड़ ने नारियल से धुआँ निकालकर कहा–‘काम की कौन कमी है। घास भी कर लो, तो रुपये रोज़ की मजूरी हो जाय। नहीं जूते का काम है। तल्लियाँ बनाओ, चरसे बनाओ, मेहनत करने वाला आदमी भूखों नहीं मरता। धेली की मजूरी कहीं नहीं गयी।’

यह देखकर कि अमर को इन दोनों में कोई तज़वीद पसन्द नहीं आया। उसने एक तीसरी तजवीज़ पेश की–‘खेती बारी की इच्छा हो तो खेती कर लो। सलोनी भाभी के खेत हैं। तब तक वही जोतो।’

पयाग ने सूजा चलाते हुए कहा–‘खेती की झंझट में न पड़ना भैया। चाहे खेत में कुछ हो या न हो, लगान जरूर दो। कभी ओला-पाला; कभी सूखा-बूड़ा। एक-न-एक बला सिर पर सवार रहती है। उस पर कहीं बैल मर गया था या खलिहान में आग लग गयी तो सब कुछ स्वाहा। घास सबसे अच्छी न किसी के नौकर न चाकर, न किसी का लेना न देना, सवेरे ख़ुरपी उठाई और दोपहर तक लौट आये।’

काशी बोला–‘मजूरी, मजूरी है; किसानी, किसानी है। मजूर लाख हो, तो मजूर ही कहलायेगा। सिर पर घास लिये चले जा रहे हैं। कोई इधर से पुकारता है–ओ घास वाले! कोई उधर से। किसी की मेड़ पर घास कर लो, तो गालियाँ मिले। किसानी में मरजाद है।’

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