उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास) कर्मभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
|
31 पाठक हैं |
प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…
‘घरवाली तो है न?’
‘हाँ, वह भी है।’
‘बेचारी रो-रोकर मरी जाती होगी। कभी चिट्ठी-पत्तर लिखते हो?’
‘उसे भी मेरी परवाह नहीं है काकी। बड़े घर की लड़की है, अपने भोग-विलास में मगन है। मैं कहता हूँ, चल किसी गाँव में खेतीबारी करें। उसे शहर अच्छा लगता है।
अमरकान्त भोजन कर चुका, तो अपनी थाली उठा ली और बाहर आकर माँजने लगा। सलोनी भी पीछे-पीछे आकर बोली–‘तुम्हारी थाली मैं माँज देती, तो छोटी हो जाती?’
अमर ने हँसकर कहा–‘तो क्या मैं अपनी थाली माँजकर छोटा हो जाऊँगा?’
‘यह तो अच्छा नहीं लगता कि एक दिन के लिए आया कोई तो थाली माँजने लगे। अपने मन में सोचते होंगे, कहाँ इस भिखारिन के यहाँ ठहरा।’
अमरकान्त के दिल पर चोट न लगे इसलिए वह मुस्कराई।
अमर ने मुग्ध होकर कहा–‘भिखारिन के सरल, पवित्र स्नेह में जो सुख मिला, वह माता की गोद के सिवा और कहीं नहीं मिल सकता था काकी।’
उसने थाली धो-धाकर रख दी और दरी बिछाकर ज़मीन पर लेटने ही जा रहा था कि पन्द्रह-बीस लड़कों का एक दल आकर खड़ा हो गया। दो-तीन लड़कों के सिवा और किसी की देह पर साबुत कपड़े न थे। अमरकान्त कुतूहल से उठ बैठा, मानो कोई तमाशा होने वाला है।
जो बालक अभी दरी लेकर आया था, आगे बढ़कर बोला–‘इतने लड़के हैं हमारे गाँव में। दो-तीन लड़के नहीं आये, कहते थे न वह कान काट लेंगे।’
अमरकान्त ने उठाकर उन सभी को क़तार में खड़ा किया और एक-एक का नाम पूछा। फिर बोले–‘तुममें से जो-जो रोज़ हाथ-मुँह धोता है, अपना हाथ उठाये।’
किसी लड़के ने हाथ न उठाया। यह प्रश्न किसी की समझ में न आया।
|