उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास) कर्मभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…
‘भाई, तू बड़ा खराब लड़का है।’
रसोई में दूसरी थाली कहाँ थी। सलोनी ने हथेली पर बाज़रे की रोटियाँ ले लीं और रसोई के बाहर निकल आयी। अमर ने बाजरे की रोटियाँ देख लीं। बोला– ‘यह न होगा काकी! मुझे तो यह फुलके दे दिए, आप मज़ेदार रोटियाँ उड़ा रही हैं।’
‘तू क्या खायेगा बाजरे की रोटियाँ बेटा? एक दिन के लिए आ पड़ा, तो बाजरे की रोटियाँ खिलाऊँ?’
‘मैं तो मेहमान नहीं हूँ। यही समझ लो कि तुम्हारा कोई खोया हुआ बालक आ गया है।’
‘पहले दिन उस लड़के की भी मेहमानी की जाती है। मैं तुम्हारी क्या मेहमानी करूँगी बेटा! रूखी रोटियाँ भी कोई मेहमानी है? न दारू, न सिकार।’
‘मैं तो दारू-सिकार छूता भी नहीं काकी।’
अमरकान्त ने बाजरे की रोटियों के लिए आग्रह न किया। बुढ़िया को और दुःख होता। दोनों खाने लगे। बुढ़िया यह बात सुनकर बोली–इसे उमिर में तो भगतई नहीं अच्छी लगती बेटा। यही तो खाने-पीने के दिन हैं। भगतई के लिए तो बुढ़ापा है ही।’
‘भगत नहीं हूँ काकी! मेरा मन नहीं चाहता।’
‘माँ-बाप भगत रहे होंगे।’
‘हाँ, वह दोनों जने भगत थे।’
‘अभी दोनों हैं न?’
‘अम्माँ तो मर गयीं, दादा हैं। उनसे मेरी नहीं पटती।’
‘तो घर से रूठकर आये हो?’
‘एक बात पर दादा से कहा सुनी हो गयी। मैं चला आया।’
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