उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास) कर्मभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…
‘फ़जूल है। शायद मेरी तकदीर में यही लिखा था। कभी ख़ुशी न नसीब हुई। और न शायद नसीब होगी। जब रो-रोकर ही मरना है, तो कहीं भी रो सकता हूँ।’
‘चलो मेरे घर, वहाँ डॉक्टर साहब को भी बुला लें, फिर सलाह करें। यह क्या कि एक बुढ़िया ने फटकार बताई और आप घर से भाग खड़े हुए। यहाँ तो ऐसी कितनी ही फटकारें सुन चुका, पर कभी परवाह नहीं की।’
‘मुझे तो सकीना का ख़याल आता है कि बुढ़िया उसे कोस-कोसकर मार डालेगी।’
‘आख़िर तुमने ऐसी क्या बात देखी, जो लट्टू हो गये?’
अमर ने छाती पर हाथ रखकर कहा–‘तुम्हें क्या बताऊँ भाईजान! सकीना असमत और वफ़ा की देवी है। गूदड़ में यह रत्न कहाँ से आ गया, यह तो खुदा ही जाने, पर मेरी गमनसीब ज़िन्दगी में वही चन्द लम्हे यादगार हैं, जो उसके साथ गुज़रे। तुमसे इतनी ही अर्ज़ है कि ज़रा उसकी ख़बर लेते रहना। इस वक़्त दिल की जो कैफ़ियत है, वह बयान नहीं कर सकता। नहीं जानता जिन्दा रहूँगा या मरूँगा। नाव पर बैठा हूँ। कहाँ जा रहा हूँ, ख़बर नहीं। कब, कहाँ नाव किनारे लगेगी मुझे कुछ ख़बर नहीं। बहुत मुमकिन है मँझधार ही में डूब जाय। अगर ज़िन्दगी के तजरबे से कोई बात समझ में आयी, तो यह कि संसार में किसी न्यायी ईश्वर का राज्य नहीं है। जो चीज़ जिसे मिलनी चाहिए उसे नहीं मिलती। उसका उलटा ही होता है। हम जंजीरों में जकड़े हुए हैं। खुद हाथ-पाँव नहीं हिला सकते। हमें एक चीज़ दे दी जाती है और कहा जाता है, इसके साथ तुम्हें ज़िन्दगी भर निबाह करना होगा। हमारा धरम है कि उस चीज़ पर क़नाअत करें। चाहें हमें उससे नफ़रत ही क्यों न हो। अगर हम अपनी ज़िन्दगी के लिए कोई दूसरी राह निकालते हैं, तो हमारी गरदन पकड़ ली जाती है, हमें कुचल दिया जाता है। इसी को दुनिया इन्साफ़ कहती है। कम-से-कम में इस दुनिया में रहने के काबिल नहीं हूँ।’
सलीम बोला–‘तुम लोग बैठे-बैठाये अपनी जान जहमत में डालने की फिक्रें किया करते हो, गोया ज़िन्दगी हज़ार-दो-हज़ार साल की है। घर में रुपये भरे हुए हैं, बाप तुम्हारे ऊपर जान देता है, बीवी परी जैसी बैठी हुई है, और आप एक जुलाहे की लड़की के पीछे घरबार छोड़े भागे जा रहे हैं। मैं तो इसे पागलपन कहता हूँ। ज़्यादा-से-ज़्यादा यही तो होगा कि तुम कुछ कर जाओगे यहाँ पड़े सोते रहेंगे। पर अंजाम दोनों का एक है। तुम रामनाम सत्त हो जाओगे, मैं इन्नल्लाह राज़ेऊन!’
अमर ने विशाद भरे स्वर में कहा–‘जिस तरह तुम्हारी ज़िन्दगी गुज़री है, उस तरह मेरी ज़िन्दगी भी गुज़रती, तो शायद मेरे भी यह ख़याल होते। मैं वह दरख़्त हूँ जिसे कभी पानी नहीं मिला। ज़िन्दगी की वह उम्र, जब इन्सान को मुहब्बत की सबसे ज़्यादा ज़रूरत होती है, बचपन है। उस वक़्त खुराक पौधे को तरी मिल जाय तो ज़िन्दगी भर के लिए उसकी जड़ें मजबूत हो जाती हैं। उस वक़्त खुराक न पाकर उसकी ज़िन्दगी खुश्क हो जाती है। मेरी माता का उसी ज़माने में देहान्त हुआ और तब से मेरी रूह को ख़ुराक नहीं मिली। वही भूख मेरी ज़िन्दगी है। मुझे जहाँ मुहब्बत का एक रेजा भी मिलेगा, मैं बेअख्तियार उसी तरफ़ जाऊँगा। कुदरत का अटल क़ानून मुझे उस तरफ़ ले जाता है। इसके लिए अगर मुझे कोई ख़तवार कहे, तो कहे। मैं तो खुदा ही को ज़िम्मेदार कहूँगा।’
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