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कर्मभूमि (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :658
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8511
आईएसबीएन :978-1-61301-084

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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…


वह एक क्षण के लिए ठिठक गया। सकीना उसके साथ चलने को तैयार है, तो क्यों न उसे साथ ले ले। फिर लोग जी भरकर रोयें और पीटें और कोसें। आख़िर यही तो वह चाहता था, लेकिन पहले दूर से जो पहाड़ टीला-सा नज़र आता था, अब सामने देखकर उस पर चढ़ने की हिम्मत न होती थी। देश भर में कैसा हाहाकार मचेगा। एक म्युनिसिपल कमिश्नर एक मुसलमान लड़की को लेकर भाग गया। हरेक ज़बान पर यही चर्चा होगी। दादा शायद ज़हर खा लें। विरोधियों को तालियाँ पीटने का अवसर मिल जायेगा। उसे टालस्टाय की एक कहानी याद आयी। जिसमें एक पुरुष अपनी प्रेमिका को लेकर भाग जाता है, पर उसका कितना भीषण अन्त होता है। अमर खुद किसी के विषय में ऐसी ख़बर सुनता, तो उससे घृणा करता। माँस और रक्त से ढका हुआ कंकाल कितना सुन्दर होता है। रक्त और माँस का आवरण हट जाने पर वही कंकाल कितना भयंकर हो जाता है। ऐसी अफवाहें सुन्दर और सरस को मिटाकर वीभत्स को मूर्तिमान कर देती हैं। नहीं, अमर अब घर नहीं जा सकता।

अकस्मात, बच्चे की याद आ गयी। उसके जीवन के अन्धकार में वही एक प्रकाश था। उसका मन उसी प्रकाश की ओर लपका। बच्चे की मोहिनी मूर्ति सामने आकर खड़ी हो गयी।

किसी ने पुकारा–‘अमरकान्त, यहाँ कैसे खड़े हो?’

अमर ने पीछे फिरकर देखा तो सलीम बोला–‘तुम किधर से?’

‘ज़रा चौक की तरफ़ गया था।’

‘यहाँ कैसे खड़े हो? शायद माशूक से मिलने जा रहे हो?’

‘वहीं से आ रहा हूँ यार, आज ग़जब हो गया। वह शैतान की ख़ाला बुढ़िया आ गयी। उसने ऐसी-ऐसी सलवातें सुनाई कि बस कुछ न पूछो।’

दोनों साथ-साथ चलने लगे। अमर ने सारी कथा कह सुनाई।

सलीम ने पूछा–‘तो अब घर जाओगे ही नहीं। यह हिमाकत है। बुढ़िया को बकने दो। हम सब तुम्हारी पाकदामनी की गवाही देंगे। मगर यार, हो तुम अहमक़। और क्या कहूँ। बिच्छू का मन्त्र न जाने साँप के मुँह में उँगली डाले। वही हाल तुम्हारा है। कहता था, उधर ज़्यादा न आओ-जाओ। आख़िर हुई वही बात। ख़ैरियत हुई कि बुढ़िया ने मुहल्लेवालों को नहीं बुलाया, नहीं तो ख़ून हो जाता।’

अमर ने दार्शनिक भाव से कहा–‘खैर, जो कुछ हुआ अच्छा ही हुआ। अब तो यही जी चाहता है कि सारी दुनिया से अलग किसी ग़ोशे में पड़ा रहूँ! और कुछ खेती-बारी करके गुज़र करूँ। देख ली दुनिया, जी तंग आ गया।’

‘तो आख़िर कहाँ जाओगे?’

‘कह नहीं सकता। जिधर तक़दीर ले जाय।’

‘मैं चलकर बुढ़िया को समझा दूँ?’

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