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कर्मभूमि (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :658
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8511
आईएसबीएन :978-1-61301-084

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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…


समरकान्त घर वालों के सिवा और किसी के हाथ का भोजन न ग्रहण करते थे। कई दिन तो उन्होंने केवल दूध पर काटे, फिर कई दिन फल खाकर रहे, लेकिन रोटी-दाल के लिए जी तरसता रहा था। नाना पदार्थ बाज़ार में भरे थे, पर रोटियाँ कहाँ? एक दिन उनसे न रहा गया। रोटियाँ पकाई और हौके में आकर कुछ ज़्यादा खा गये। अजीर्ण हो गया। एक दिन दस्त आये। दूसरे दिन ज्वर हो आया। फलाहार से कुछ तो पहले गल चुके थे, दो दिन की बीमारी ने लस्त कर दिया।

सुखदा को देखकर बोले–‘अभी क्या आने की जल्दी थी, बहू, दो-चार दिन और देख लेती। तब तक यह धन का साँप उड़ गया होता। वह लौंडा समझता है, मुझे अपने बाल बच्चों से धन प्यारा है। किसके लिए इसका संचय किया था? अपने लिए? तो बाल-बच्चों को क्यों जन्म दिया? उसी लौंडे को, जो आज मेरा शत्रु बना हुआ है, छाती से लगाये क्यों ओझे-स्यानों, वैदों-हकीमों के पास दौड़ा फिरा? खुद कभी अच्छा नहीं खाया, अच्छा नहीं पहना, किसके लिए? कृपण बना, बेईमानी की, दूसरों की खुशामद की, अपनी आत्मा की हत्या की, किसके लिए? जिसके लिए चोरी की, वही आज मुझे चोर कहता है?’

सुखदा सिर झुकाये खड़ी रोती रही।

लालाजी ने फिर कहा–‘मैं जानता हूँ, जिसे ईश्वर ने हाथ दिये हैं, वह दूसरों का मुहताज नहीं रह सकता। इतना मूर्ख नहीं हूँ, लेकिन माँ-बाप की कामना तो यही होती है कि उनकी सन्तान को कोई कष्ट न हो। जिस तरह उन्हें मरना पड़ा, उसी तरह उनकी सन्तान को मरना न पड़े। जिस तरह उन्हें धक्के खाने पड़े, कर्म-अकर्म सब करने पड़े, वे कठिनाइयाँ उनकी सन्तान को न झेलनी पड़ें। दुनिया उन्हें लोभी, स्वार्थी कहती है, उनको परवाह नहीं होती, लेकिन जब अपनी ही सन्तान अपना अनादर करे, तब सोचो, अभागे बाप के दिल पर क्या बीतती है। उसे मालूम होता है, सारा जीवन निष्फल हो गया। जो विशाल भवन एक-एक ईट जोड़कर खड़ा किया था, जिसके लिए क्वार की धूप और माघ की वर्षा सब झेली, जीवन ढह गया, सम्पूर्ण जीवन की कामना ढह गयी।’

सुखदा ने बालक को नैना की गोद से लेकर ससुर की चारपाई पर सुला दिया और पंखा झलने लगी। बालक ने बड़ी-बड़ी सजग आँखों से बूढ़े दादा की मूछें देखीं, और उनके यहाँ रहने का कोई विशेष प्रयोजन न देखकर उन्हें उखाड़कर फेंक देने के लिए उद्यत हो गया। दोनों हाथों से मूँछे पकड़कर खींची। लालाजी ने ‘सी-सी’ तो की पर बालक के हाथों को हटाया नहीं। हनुमान ने भी इतनी निर्दयता से लंका के उद्यानों को विध्वंस न किया होगा। फिर भी लालाजी ने बालक के हाथों से मूँछे नहीं छुड़ाईं। उनकी कामनाएँ, जो पड़ी एड़ियाँ रगड़ रही थीं, इस स्पर्श से जैसे संजीवनी पा गयीं। उस स्पर्श में कोई ऐसा प्रसाद, कोई ऐसी विभूति थी। उनके रोम-रोम में समाया हुआ बालक जैसे मथित होकर नवनीत की भाँति प्रत्यक्ष हो गया हो।

दो दिन सुखदा अपने नये घर न गयी, पर अमरकान्त पिता को देखने एक बार भी न आया। सिल्लो भी सुखदा के साथ चली गयी थी। शाम को आता, रोटियाँ पकाता, खाता और कांग्रेस-दफ्तर या नौजवान सभा के कार्यालय में चला जाता। कभी किसी आम जलसे में बोलता, कभी चन्दा उगाहता।

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