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कलम, तलवार और त्याग-1 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :145
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8500
आईएसबीएन :978-1-61301-190

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स्वतंत्रता-प्राप्ति के पूर्व तत्कालीन-युग-चेतना के सन्दर्भ में उन्होंने कुछ महापुरुषों के जो प्रेरणादायक और उद्बोधक शब्दचित्र अंकित किए थे, उन्हें ‘‘कलम, तलवार और त्याग’’ में इस विश्वास के साथ प्रस्तुत किया जा रहा है


पर अबकी बार उसके विचारों ने कुछ और ही रूप ग्रहण किया। बार-बार की हार और विफलता ने उस पर साबित कर दिया कि इने-गिने साथियों और पुराने जंग खाए हुए हथियारों से अकबरी प्रताप के प्रवाह को रोकना अति कठिन ही नहीं, किंतु असंभव है, अतः क्यों न उस देश को जहाँ से स्वाधीनता सदा के लिए चली गई, अंतिम नमस्कार करके किसी ऐसे स्थान पर सिसौदिया कुल का केसरिया झंडा गाड़ा जाए, जहाँ उसके झुकने का कोई डर ही न हो। बहुत बहस-मुबाहसे के बाद यह सलाह तै पायी कि सिंधु नदी के तट पर, जहाँ पहुँचने में शत्रु को एक रेगिस्तान पार करना पड़ेगा, नया राज्य स्थापित किया जाय।

कैसा विशाल हृदय और कितनी ऊँची हिम्मत थी कि इतनी पराजयों के बाद भी ऐसे ऊँचे इरादे दिल में पैदा होते थे। यह विचार पक्का करके राणा अपने कुटुम्बियों और बचे-खुचे साथियों को लेकर इस मुहिम पर चल खड़ा हुआ। अरावली के पश्चिमी अंचल को पार करता हुआ मरुभूमि के किनारे तक जा पहुँचा। पर इस बीच एक ऐसी शुभ घटना घटित हुई, जिसने उसका विचार बदल दिया और उसे अपनी प्रिय जन्मभूमि को लौट आने की प्रेरणा दी।

राजस्थान का इतिहास केवल प्राणोत्सर्ग और लोकोत्तर वीरता की कथाओं से ही नहीं भरा हुआ है, स्वामिभक्ति और वफ़ादारी के सतत स्मरणीय और गर्व करने योग्य दृष्टांत भी उसमें उसी तरह भरे पड़े हैं। भामाशाह ने, जिसके पुरखे चित्तौड़ राज्य के मंत्री रहे, जब अपने मालिक को देश-त्याग करते हुए देखा, तो नमकख्वारी का जोश उमड़ आया। हाथ बाँधकर राणा की सेवा में उपस्थित हुआ और बोला–महाराज, मैंने अनेक पीढ़ियों से आपका नमक खाया है, मेरी जमाजथा जो कुछ है, आप ही की दी हुई है। मेरी देह भी आप ही की पालीपोसी हुई है। क्या मेरे जीते-जी अपने प्यारे देश को आप सदा के लिए त्याग देंगे? यह कहकर उस वफ़ादारी के पुतले ने अपने खजाने की कुंजी राणा के चरणों में रख दी। कहते हैं कि उस खजाने में इतनी दौलत थी कि उससे २५ हजार आदमी २२ साल तक अच्छी गुजर कर सकते थे। उचित है कि आज जहाँ राणा प्रताप के नाम पर श्रद्धा के हार चढ़ाए जाएँ; वहाँ भामाशाह के नाम पर भी दो-चार फूल बिखेर दिये जाएँ।

कुछ तो इस प्रचुर धनराशि की प्राप्ति और कुछ पृथ्वीसिंह की वीर भाव-भरी कविता ने राणा के डगमगाते हुए मन को फिर दृढ़ कर दिया। उसने अपने साथियों को, जो इधर-उधर बिखर गए थे, झटपट फिर जमा कर लिया। शत्रु तो निश्चिंत बैठे थे कि अब यह बला अरावली के उस पार रेगिस्तान से सर मार रही होगी कि राणा अपने दल के साथ शेर की तरह टूट पड़ा और कोका शाहबाज खाँ को, जो दोयर में सेना लिये निश्चिंत पड़ा था, जा घेरा,। दम-के-दम में सारी सेना धराशायी बना दी गई। अभी शत्रु पक्ष पूरी तरह सजग न होने पाया था कि राणा कुंभलमेर पर जा डटा और अब्दुल्ला तथा उसकी सेना को तलवार के घाट उतार दिया। जब तक बादशाही दरबार तक खबर पहुँचे-पहुँचे, राणा का केसरिया झंडा, दूर किलों पर लहरा रहा था। साल भर भी न गुजरा था कि उसने अपने हाथ से गया हुआ राज्य लौटा लिया। केवल चित्तौड़, अजमेर और गढ़मंडल पर कब्जा न हो सका। इसी हल्ले में उसने मानसिंह का भी थोड़ा मान-मर्दन कर दिया। अलवर पर चढ़ दौड़ा और वहाँ की मशहूर मंडी भालपुरा को लूट लिया।

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