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कलम, तलवार और त्याग-1 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :145
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8500
आईएसबीएन :978-1-61301-190

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स्वतंत्रता-प्राप्ति के पूर्व तत्कालीन-युग-चेतना के सन्दर्भ में उन्होंने कुछ महापुरुषों के जो प्रेरणादायक और उद्बोधक शब्दचित्र अंकित किए थे, उन्हें ‘‘कलम, तलवार और त्याग’’ में इस विश्वास के साथ प्रस्तुत किया जा रहा है


एक दिन राणा एक पहाड़ी दर्रे में लेटा हुआ था। रानी और उसकी पुत्रवधू कंद-मूल की रोटियाँ पका रही थीं। बच्चे खाना पाने की खुशी में इधर-उधर कुलेलें करते फिरते थे। आज पाँच फ़ाँके गुजर चुके थे। राजा न जाने किस विचार-सागर में डूबता-उतराता बच्चों की चेष्टाओं को निराशा-भरी आँखों से देख रहा था। हा!  यह वह बच्चे हैं, जिनको मखमली गद्दों पर नींद न आती थी, जो दुनिया की नियामतों की ओर आँख उठाकर न देखते थे, जिनको अपने-बेगाने सभी गोद की जगह सिर-आँखों पर बिठाते थे, आज उनकी यह हालत है कि कोई बात नहीं पूछता, न कपड़े, न लत्ते, कंदमूल की रोटियों की आशा पर मगन हो रहे हैं और उछल-कूद रहे हैं।

वह इन्हीं दिल बैठा देनेवाले विचारों में डूबा हुआ था कि अचानक अपनी प्यारी बेटी की जोर की चीख ने उसे चौंका दिया। देखता है, तो एक जंगली बिल्ली उसके हाथ से रोटी छीने लिये जा रही है और वह बेचारी बड़े करुण स्वर में रो रही है। हाय! बेचारी क्यों न रोए! आज पाँच फाँकों के बाद आधी रोटी मिली थी, फिर नहीं मालूम कै कड़ाके गुजरेंगे? यह देखकर राणा की आँखों में आँसू उमड़ आए। उसने अपने जवान बेटों को रणभूमि में अपनी आँखों से दम तोड़ते देखा था; पर कभी उसका हृदय कातर न हुआ था, कभी आँखों में आँसू न आये थे। मरना-मारना तो राजपूत का धर्म है। इस पर कोई राजपूत क्यों आँसू बहाए? पर आज इस बालिका के विलाप ने उसे विवश कर दिया। आज क्षण भर के लिए उसकी दृढ़ता के पाँव डिग गए। कुछ क्षण के लिए मानव-प्रकृति ने वैयक्तिक विशेषत्व को पराजित कर दिया।

सहृदय व्यक्ति जितने ही शूर और साहसी होते हैं, उतने ही कोमलचित्त भी होते हैं। नेपोलियन बोनापार्ट ने हजारों आदमियों को मरते देखा था और हजारों को अपने हाथों खाक पर सुला दिया था। पर एक भूखे, दुबले, कमजोर कुत्ते को अपने मालिक की लाश के इधर-उधर मँडराते देख, उसकी आँखों से अश्रुधारा उमड़ पड़ी। राणा ने लड़की को गोद में ले लिया और बोला–धिक्कार है मुझको कि केवल नाम के राजत्व के लिए अपने प्यारे बच्चों को इतने क्लेश दे रहा हूँ। उसी समय अकबर के पास पत्र भेजा कि अब कष्ट सहे नहीं जाते, मेरी दशा पर कुछ दया कीजिए।

अकबर के पास यह संदेशा पहुँचा तो मानो कोई अप्रत्याशित वस्तु मिल गई। खुशी के मारे फूला न समाया। राणा के पत्र दरबारियों को सगर्व दिखाने लगा। मगर दरबार में अगुणाज्ञ लोग बहुत कम होंगे, जिन्होंने राणा की अधीनता के समाचार को प्रसन्नता के साथ सुना हो। राजे-महाराजे यद्यपि अकबर की दरबारी करते थे, पर स्वजाति के अभिमान के नाते सबके हृदय में राणा के लिए सम्मान का भाव था। उनको इस बात का गर्व था कि यद्यपि हम पराधीन हो गए हैं, पर हमारा एक भाई अभी तक स्वाधीन राजत्व का डंका बजा रहा है। और क्या आश्चर्य कि कभी-कभी अपने दिलों में इतने सहज में वश्यता स्वीकार कर लेने पर लज्जा भी अनुभव करते हों। इनमें बीकानेर नरेश का छोटा भाई पृथ्वीसिंह भी था, जो बड़ा तलवार का धनी और शूरवीर था। राणा के प्रति उसके हृदय में सच्ची श्रद्धा उत्पन्न हो गई थी। उसने जो यह खबर सुनी, तो विश्वास न हुआ। पर राणा की लिखावट देखी, तो दिल को गहरी चोट पहुँची। खानखाना की तरह वह भी न केवल तलवार का धनी था, बल्कि सहृदय कवि भी था और वीर-रस के छंद रचा करता था। उसने अकबर से राणा के पास पत्र भेजने की अनुमति प्राप्त कर ली–इस बहाने से कि मैं उसके अधीनता स्वीकारने के समाचार की प्रामाणिकता की जाँच करूँगा। पर उस पत्र में उसने अपना हृदय निकालकर रख दिया। ऐसे-ऐसे वीररस भरे, ओजस्वी और उत्साह-वर्द्धक पद्य लिखे कि राणा के दिल पर वीर-विरुदावली का काम कर गए। उसके दबे हुए हौसलों ने फिर सिर उभारा, आज़ादी का जोश फिर मचल उठा और अधीनता स्वीकारने का विचार कपूर की तरह मन से उड़ गया।

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