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गुप्त धन-2 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :467
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8464
आईएसबीएन :978-1-61301-159

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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ

इज़्ज़त का ख़ून

मैंने कहानियों और इतिहासों में तक़दीर के उलट फेर की अजीबो-गरीब दास्तानें पढ़ी हैं। शाह को भिखमंगा और भिखमंगे को शाह बनते देखा है तक़दीर एक छुपा हुआ भेद है। गलियों में टुकड़े चुनती हुई औरतें सोने के सिंहासन पर बैठ गयी है और वह ऐश्वर्य के मतवाले जिनके इशारे पर तक़दीर भी सिर झुकाती थी, आन की शान में चील कौओं का शिकार बन गये हैं। पर मेरे सर पर जो कुछ बीती उसकी नज़ीर कहीं नहीं मिलती। आह, उन घटनाओं को आज याद करती हूँ तो रोंगटे खड़े हो जाते हैं और हैरत होती है कि अब तक मैं क्यों और क्योंकर ज़िन्दा हूँ। सौन्दर्य लालसाओं का स्त्रोत है। मेरे दिल में क्या-क्या लालसाएँ न थीं पर आह, निष्ठुर भाग्य के हाथों मर मिटीं। मैं क्या जानती थी कि वह आदमी जो मेरी एक-एक अदा पर कुर्बान होता था एक दिन मुझे इस तरह ज़लील और बर्बाद करेगा।

आज तीन साल हुए जब मैंने इस घर में कदम रक्खा उस वक़्त यह एक हरा-भरा चमन था। मैं इस चमन की बुलबुल थी, हवा में उड़ती थी, डालियों पर चहकती थी, फूलों पर सोती थी। सईद मेरा था, मैं सईद की थी। इस संगमरमर के हौज़ के किनारे हम मुहब्बत के पाँसे खेलते थे। इन्हीं क्यारियों में उल्फ़त के तराने गाते थे। इसी चमन में हमारी मुहब्बत की गुप-चुप बातें होती थीं, मस्तियों के दौर चलते थे। वह मुझसे कहते थे– तुम मेरी जान हो। मैं उनसे कहती थी– तुम मेरे दिलदार हो। हमारी जायदाद लम्बी-चौड़ी थी। ज़माने की कोई फ़िक्र, ज़िन्दगी का कोई ग़म न था। हमारे लिए ज़िन्दगी सशरीर आनन्द एक अनन्त चाह और बहार का तिलिस्म थी, जिसमें मुरादे खिलती थीं और खुशियाँ हंसती थी ज़माना हमारी इच्छाओं पर चलने वाला था। आसमान हमारी भलाई चाहता था। और तक़दीर हमारी साथी थी।

एक दिन सईद ने आकर कहा– मेरी जान, मैं तुमसे एक विनती करने आया हूँ। देखना इन मुस्कराते हुए होठों पर इनकार का हर्फ न आये। मैं चाहता हूँ कि अपनी सारी मिलकियत, सारी जायदाद तुम्हारे नाम चढ़वा दूँ मेरे लिए तुम्हारी मुहब्बत काफ़ी है। यही मेरे लिए सबसे बड़ी नेमत है मैं अपनी हकीकत को मिटा देना चाहता हूँ। चाहता हूँ कि तुम्हारे दरवाज़े का फ़क़ीर बन करके रहूँ। तुम मेरी नूरजहाँ बन जाओ; मैं तुम्हारा सलीम बनूँगा, और तुम्हारी मूँगे जैसी हथेली के प्यालों पर उम्र बसर करुँगा।

मेरी आँखें भर आयीं। खुशियाँ चोटी पर पहुँचकर आँसू की बूँद बन गयीं।

पर अभी पूरा साल भी न गुज़रा था कि मुझे सईद के मिज़ाज में कुछ तबदीली नज़र आने लगी। हमारे दरमियान कोई लड़ाई-झगड़ा या बदमज़गी न हुई थी मगर अब वह सईद न था जिसे एक लमहे के लिए भी मेरी जुदाई दूभर थी वह अब रात की रात ग़ायब रहता। उसकी आँखों में प्रेम की वह उमंग न थी न अन्दाज़ों में वह प्यास, न मिज़ाज में वह गर्मी।

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