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गुप्त धन-2 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :467
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8464
आईएसबीएन :978-1-61301-159

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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ


युवक ने जवाब दिया– हमारा घर देहात में है। कल शाम को चले थे। ये हमारे बाप थे। हम लोग यहाँ कम आते हैं, पर दादा की अन्तिम इच्छा थी कि हमें मणिकर्णिका घाट पर ले जाना।

चैतन्यदास– ये सब आदमी तुम्हारे साथ हैं?

युवक– हाँ, और लोग पीछे आते हैं। कई सौ आदमी साथ आये हैं। यहाँ तक आने में सैकड़ों उठ गये पर सोचता है कि बूढ़े पिता की मुक्ति तो बन गई। धन और है ही किसलिए।

चैतन्यदास– उन्हें क्या बीमारी थी?

युवक ने बड़ी सरलता से कहा, मानो वह अपने किसी निजी सम्बन्धी से बात कर रहा हो।– बीमारी का किसी को कुछ पता नहीं चला। हरदम ज्वर चढ़ा रहता था। सूखकर कांटा हो गये थे। चित्रकूट, हरिद्वार, प्रयाग सभी स्थानों में ले लेकर घूमे। वैद्यों ने जो कुछ कहा उसमें कोई कसर नहीं की।

इतने में युवक का एक और साथी आ गया और बोला– साहब, मुँह देखी बात नहीं, नारायण लड़का दे तो ऐसा दे। इसने रुपयों को ठीकरे समझा। घर की सारी पूंजी पिता की दवा दारू में स्वाहा कर दी। थोड़ी सी जमीन तक बेच दी पर काल बली के सामने आदमी का क्या बस है।

युवक ने गद्गद स्वर से कहा– भैया, रुपया पैसा हाथ का मैल है। कहाँ आता है कहाँ जाता है, मुनष्य नहीं मिलता। जिन्दगानी है तो कमा खाऊँगा। पर मन में यह लालसा तो नहीं रह गयी कि हाय! यह नहीं किया, उस वैद्य के पास नहीं गया नहीं तो शायद बच जाते। हम तो कहते हैं कि कोई हमारा सारा घर-द्वार लिखा ले केवल दादा को एक बोल बुला दे। इसी माया-मोह का नाम जिन्दगानी है, नहीं तो इसमें क्या रक्खा है? धन से प्यारी जान जान से प्यारा ईमान। बाबू साहब आपसे सच कहता हूँ अगर दादा के लिए अपने बस की कोई बात उठा रखता तो आज रोते न बनता। अपना ही चित्त अपने को धिक्कारता। नहीं तो मुझे इस घड़ी ऐसा जान पड़ता है कि मेरा उद्धार एक भारी ऋण से हो गया। उनकी आत्मा सुख और शान्ति से रहेगी तो मेरा सब तरह कल्याण ही होगा।

बाबू चैतन्यदास सिर झुकाये ये बातें सुन रहे थे। एक-एक शब्द उनके हृदय में शर के समान चुभता था। इस उदारता के प्रकाश में उन्हें अपनी हृदय-हीनता, अपनी आत्मशून्यता, अपनी भौतिकता अत्यन्त भयंकर दिखायी देती थी। उनके चित्त पर इस घटना का कितना प्रभाव पड़ा यह इसी से अनुमान किया जा सकता है कि प्रभुदास के अन्त्येष्टि संस्कार में उन्होंने हज़ारों रुपये खर्च कर डाले उनके सन्तप्त हृदय की शान्ति के लिए अब एकमात्र यही उपाय रह गया था।

– सरस्वती, जून, १९२०
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