अतिरिक्त >> दरिंदे दरिंदेहमीदुल्ला
|
9 पाठक हैं |
समाज और व्यवस्था के प्रति आक्रोश
मालतीः मधु के स्वर्गवासी मामाजी ने।
बिहारीः अपने को अतीत में बाँधे रखना चाहती हो ?
मालतीः इसमें सुख मिलता है।
बिहारीः कभी-कभी अतीत भविष्य की खुशियों में आड़े आ जाता है। कभी सोचा है
इस बारे में ? अभी तो मैं मधु की साड़ी की बात कर रहा था। साड़ी में कितनी
सुन्दर लग रही है यह लड़की।
मधुः चलिए।
बिहारीः चलें।
मालतीः रात क्लब में मिल रहे हो ?
बिहारीः श्योर।
(प्रकाश विलुप्त हो जाता है। अन्तराल पार्श्वसंगीत भाग ‘ख'
आलोकित होता है। मधु का हाथ पकड़े बिहारी का प्रवेश)
मधुः यहाँ इस पार्क में क्यों ले आये मुझे ?
बिहारीः हरी दूब पर बैठेंगे कुछ देर। खुली हवा में बातें करेंगे।
मधुः तुम्हें कहीं जाने की जल्दी थी ?
बिहारीः अब नहीं। वहाँ बड़ी घुटन थी। इसलिए कहा था वो।
मधु: आण्टी क्या पूछ रही थीं ?
बिहारी: यही रिश्तों का अर्थ।
मधु: क्या बताया ?
बिहारी: अलग-अलग स्थितियों में अर्थ बदल जाते हैं, और.........
मधु: और.....
बिहारी: सम्बोधन भी। उनके अपने शब्दों में तुम्हारे बिहारी अंकल और यहाँ
अकेले में तुम्हारा सम्बोधन सिर्फ़ ‘बिहारी’।
(मधु हौले से हँसती है।)
बिहारी: तुम्हारा यूँ हलके से मुस्कराना अच्छा लगता है।
मधु: मेरे लिए इस हँसी का कोई महत्त्व नहीं।
बिहारी: क्यों ?
मधु: भुलावे की ज़िन्दगी में किसी चीज़ का कोई अर्थ नहीं होता है। देखा,
आण्टी किस क़दर खिन्न हैं मुझसे।
बिहारी: हाँ। ऐसी बात है तो तुम अपने माँ-बाप के पास क्यों नहीं रहतीं।
मधु: मैं यही चाहती हूँ।
बिहारी: अड़चन क्या है ? (मधु चुप रहती है।) चुप क्यों हो ? कुछ छुपा रही
हो मुझसे।
मधु: जानना चाहते हो ?
बिहारी: मुझे तुमसे प्यार है, मधु !
मधु: डैडी की मन्थली इनकम तीन सौ रुपये है। उन्हें रोजाना शराब चाहिए और
औरतें। मम्मी घर पर थोड़ा-बहुत सिलाई का काम करती हैं। इससे किसी तरह घर
का खर्च चल जाता है। दो छोटे भाई और दो बहनें और हैं। आये दिन किसी न किसी
बात को लेकर मम्मी-डैडी में झगड़े होते रहते हैं। उस माहौल में घर-सा कुछ
भी नहीं है। विश्वास करो, बिहारी, मैं उनकी सन्तान हूँ, लेकिन जब-जब मैं
वहाँ जाती हूँ, मुझे मेहमान की तरह ट्रीट किया जाता है। मम्मी मुझे वहाँ
आया देखकर उदास हो जाती हैं। वापस लौटने पर दरवाज़ें तक मेहमान की तरह
मुझे छोड़ने आया जाता है। वे नहीं चाहते, मैं वहाँ रहूँ। मेरा उस घर में
कदम रखना उन्हें अच्छा नहीं लगता। मेरा जीवन उस गीली लकड़ी की तरह है, जो
न बुझती है, न जलती है, धुआँ देती रहती है। हर तरफ धुआँ, धुआँ और अंधेरा।
इस अँधेरे में यदि प्रकाश-किरण है, तो वो तुम्हारा साथ है। मुझे अपनी
जीवन-संगिनी बना लो।
बिहारी: दिल से चाहता हूँ, मैं भी। पर फ़िलहाल कुछ मजबूरियाँ हैं।
मधु: मज़बूरियाँ कैसी ?
बिहारी: इंश्योरेन्स के काम में इतना पैसा नहीं मिलता कि तुम्हारी और मेरी
आराम से गुजर हो जाये।
मधु: मैं घर चाहती हूँ, बिहारी। घर बसाना चाहती हूँ। और चाहती हूँ, कोई
मुझसे प्यार करे। बेहद प्यार।
बिहारी: मैं तुम्हारी खुशी चाहता हूँ।
मधु: इससे जीवन को अर्थ मिलेगा और स्थायित्व भी। भटकाव अच्छा नहीं लगता।
बिहारी: भटकाव किसी को भी अच्छा नहीं लगता, सिवाय ऐसे लोगों के जिनकी आदत
में यह शामिल है।
मधु: तुम्हारी आदत में भी ?
|