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दरिंदे

हमीदुल्ला

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :124
मुखपृष्ठ :
पुस्तक क्रमांक : 8424
आईएसबीएन :0

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समाज और व्यवस्था के प्रति आक्रोश


वि.दा. : नहीं। मैं तुम्हारे साथ नहीं चलूँगा। तुम ज़रूरतमंद नहीं हो। तुम घोंचे हो।
चारो पात्र एक स्वर में : तुम ज़रूरतमंद हो। हम भी ज़रूरतमंद हैं। हम घोंचे हैं। तुम भी घोंचे हो !
वि.दा : नहीं, मैं घोंचा नहीं हूँ। मैं एक बुद्धजीवी हूँ।
चारों पात्र : नहीं, अब तुम बुद्धिजीवी नहीं रहे।
वि.दा. : हाँ, अब मैं बुद्धिजीवी नहीं रहा, क्योंकि मैं अपनी रचनाओं में ज़िन्दगी की सही तस्वीर पेश करना चाहता था। और अपने स्वार्थ ने मुझे इसकी इजाज़त नहीं दी।
चारों पात्र : तुम अब नेता भी नहीं रहे।
वि.दा. : हाँ, मैं कॅरप्शन मिटाना चाहता था और अन्डरगेट वाटर ने मेरा पीछा नहीं छोड़ा।
चारों पात्र : आओ, हमारे साथ आओ।
वि.दा. : नहीं, अब मैं किसी के साथ नहीं जाऊँगा।
चारों पात्र : तुम्हें जाना ही होगा।
वि.दा. : कोई जरूरी है ?
चारों पात्र : हाँ, बहुत जरूरी। तुम लाचार हो और हम मजबूरियाँ। तुम बेकार हो और हम स्थितियाँ।
चारों पात्र
बारी-बारी से :1- यहाँ आओ।
              2-    यहाँ आओ।
              3-    यहाँ आओ।
              4-    यहाँ आओ।
वि.दा. : नहीं।

 (दार्शनिक चारों पात्रों से घिरकर दोनों हाथों से अपना मुँह ढाँपकर बैठ जाता है। प्रकाश सिकुड़कर इस समूह पर केन्द्रित होता धीरे-धीरे विलुप्त होता है। ध्वनि-प्रभाव। पुनः प्रकाश। मंच पर शेर, भालू और लोमड़ी।)

शेर : वह शहर गया है।
भालू : हमारी माँगें पूरी होंगी न ?
लोमड़ी : हमारी माँगें ज़रूर पूरी होंगी।
भालू : हमारी माँगें पूरी होंगी।

(खुशी में भालू डुगडुगी की पार्श्वध्वनियों पर नृत्य करता है। लोमड़ी नृत्य में भालू का साथ देती है। तभी दार्शनिक का प्रवेश। भालू और लोमड़ी उसे वहाँ आया देख नृत्य करना एकाएक बन्द कर देते हैं और आश्चर्य-चकित से उसकी तरफ़ देखते हैं।)

शेर : तुम ?
भालू : आ गये तुम ?
वि.दा : हाँ।
भालू : उन्होंने हमारी माँगें मान लीं ?
लोमड़ी : हमें बराबरी का अधिकार मिला ?
शेर : तुमने हमारी आवाज़ उन तक पहुँचाई ?
वि.दा. : वहाँ जाकर मैंने तुम सबके लिए मैंने आवाज़ उठायी। लेकिन मेरी आवाज़ के साथ मेरी तारीफ की इतनी आवाज़ें आ मिलीं कि मैं असल बात कहना भूल गया। फिर दावतों, उद्घाटनों, चमचों का एक न खत्म होने वाला सिलसिला शुरू हुआ और मैं अपने आपको भूल गया।
शेर : यह भी भूल गये कि तुम हमारे प्रतिनिधि बनकर गये हो ?
वि.द. : मैं सब कुछ भूल गया। मैं चढ़ता गया। चढ़ता गया। चढ़ता गया।
लोमड़ी : तुम चढ़ते गये ?
वि.दा. : ऊँचे।
लोमड़ी : चढ़ते गये।
वि.दा. : ऊँचे।
लोमड़ी : ऊँचे। बहुत ऊँचे।
वि.दा. : बहुत-बहुत ऊँचे।
लोमड़ी : अंगूर मिले ?
वि.दा. : नहीं।
लोमड़ी : तो क्या मिला ?
वि.दा. : अंगूर की बेटी।
भालू : तुमने उसकी शादी की ?
वि.दा : मैं फिर गिरने लगा। गिरने लगा। गिरता गया।
भालू : तुम्हें कैसे महसूस हुआ कि तुम गिर रहे हो ?
वि.दा. : यह उस दिन मालूम हुआ जब मुझे याद आया कि मैं तुम्हारा प्रतिनिधि हूँ।
शेर : जब व्यक्ति गिरने लगता है, तो उसे अपने सच्चे दोस्त याद आते हैं।
लोमड़ी : हर बार यही होता है।
भालू : क्या हर बार यही होगा ?
शेर : बार-बार यह नहीं होगा।
भालू : हम पिस रहे हैं।
लोमड़ी : जिसके पास ज़्यादा है, वह अपनी ज़रूरत से ज़्यादा हिस्सा छोड़ने को तैयार नहीं है।
शेर : जिसके पास कम है, वह दुख और सुख की स्थिति के बीच झूल रहा है।
वि.दा. : इन दो सीमा-रेखाओं के बीच है, विश्वास- अविश्वास के अर्थहीन दायरे, जो दुख से सुख की ओर सुख से दुख की पहचान कराते हैं।

भालू : कुचली हुई उम्मीदों के साथ हम बूँद-बूँद पिघल रहे हैं।
शेर : हर जीव की गिनती होती है।
लोमड़ी : पैदा होने पर।
भालू : मर जाने पर।
वि.दा. : हर जीव खरीदा जाता है।
लोमड़ी : तन से।
शेर : धन से।
भालू : जीवन से।
शेर : हमें सलाखों के टूटने का इन्तज़ार है।
वि.दा. : एक मौका और दो मुझे।
लोमड़ी : नहीं, अब और नहीं।
वि.दा. : इस बार मैं ज़रूर सबके उचित अधिकार दिलाकर रहूँगा।
भालू : हर बार यही कहा जाता है।
शेर : हमें सत्य का आभास हो गया है। हमारी लड़ाई हम खुद लड़ेंगे।

(स्त्री, अन्य स्त्री और अन्य पुरुष का बारी-बारी से विंग्स की दोनों तरफ़ से प्रवेश। तीनों पात्र ‘हमें सत्य का आभास हो गया है। हमारी लड़ाई हम खुद लड़ेंगे।’ दोहराते एवं चौकी के इर्द-गिर्द चक्कर काटते शेर, भालू और लोमड़ी के समूह में आकर शामिल हो जाते हैं। तभी पुरुष का नेता के रूप में और ढोलकिया का चमचे के रूप में प्रवेश।)

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