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चन्द्रकान्ता सन्तति - 6

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :237
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8404
आईएसबीएन :978-1-61301-031-0

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चन्द्रकान्ता सन्तति 6 पुस्तक का ईपुस्तक संस्करण...

नौवाँ बयान


देवीसिंह को चम्पा की सच्चाई पर भरोसा था और वह उसे बहुत ही नेक तथा पतिव्रता समझते थे, जिस पर चम्पा ने देवीसिंह के चरणों की कसम खाकर विश्वास दिला दिया कि वह नकाबपोशों के घर नहीं गयी और कोई सबब न था कि देवीसिंह चम्पा की बात झूठ समझते। इस जगह यद्यपि देवीसिंह पुनः चम्पा को देखकर क्रोध में आ गये, मगर तुरन्त ही नीचे लिखी बातें विचारकर ठण्डे हो गये–

‘‘क्या मुझे पहिचानने में धोखा हुआ? नहीं नहीं, मेरी आँखें ऐसी गन्दी नहीं हैं। तो क्या वास्तव में वह चम्पा ही थी, जिसे अभी मैंने देखा या पहिले भी देखा था! यह भी नहीं हो सकता! चम्पा ऐसी नेक औरत कसम खाकर मुझसे झूठ भी नहीं बोल सकती। हाँ उसने क्या कसम खायी थी? यही कि ‘मैं आपके चरणों की कसम खाकर कहती हूँ कि मुझे कुछ भी याद नहीं कि आप कब की बात कर रहें हैं’। ये ही उसके शब्द हैं मगर यह कसम तो ठीक नहीं। यहाँ आने के बारे में उसने कसम नहीं खायी, बल्कि अपनी याद के बारे में कसम खायी है जिसे ठीक भी नहीं कह सकते। तो क्या उसने वास्तव में मुझे भूलभुलैये में डाल रखा है? खैर, यदि ऐसा भी हो तो मुझे रंज न होना चाहिए, क्योंकि वह नेक है, यदि ऐसा किया भी होगा तो किसी अच्छे मतलब से किया होगा, या फिर कुमारों की आज्ञा से किया होगा।’’

ऐसी बातों को सोचकर देवीसिंह ने अपने क्रोध को ठण्डा किया, मगर भूतनाथ की बेचैनी दूर न हुई।

वे दोनों औरतें जब अलमारी के अन्दर घुसकर गायब हो गयीं, तब हमारे दोनों कुमार तथा महाराज सुरेन्द्रसिंह और बीरेन्द्रसिंह ने भी उसके अन्दर पैर रक्खा। दरवाजे के साथ दाहिनी तरफ एक तहखाने के अन्दर जाने का रास्ता था, जिसके बारे में दरियाफ्त करने पर इन्द्रजीतसिंह ने बयान किया ‘जमानिया जाने का रास्ता है’ तहखाने में उतर जाने के बाद एक सुरंग मितेगी, जो बराबर जमानिया तक चली गयी है’। इन्द्रजीतसिंह की बात सुनकर देवीसिंह और भूतनाथ को विश्वास हो गया कि दोनों औरतें इसी तहखाने में उतर गयीं हैं, जिससे उन्हें भागने के लिये काफी जगह मिल सकती है। भूतनाथ ने देवीसिंहकी तरफ देखकर इशारे से कहा कि ‘इस तहखाने में चलना चाहिए’ मगर जवाब में देवीसिंह ने इशारे से ही इनकार करके अपनी लापरवाही जाहिर कर दी।

उस दीवार के अन्दर इतनी जगह न थी कि सब कोई एक साथ ही जाकर वहाँ की कैफियत देख सकते, अतएव दो तीन दफे करके सब कोई उसके अन्दर गये और उन सब पुर्जों को देखकर बहुत प्रसन्न हुए, जिनके सहारे वे तस्वीरें चलती-फिरती और काम करती थीं। जब सब कोई उस कैफियत को देख चुके, तब उस दीवार का दरवाजा बन्द कर दिया गया।

इस काम से छुट्टी पाकर सब कोई इन्द्रजीतसिंह की इच्छानुसार उस चबूतरे के पास आये, जिस पर सुफेद पत्थर की खूबसूरत पुतली बैठी हुई थी। इन्द्रजीतसिंह ने सुरेन्द्रसिंह की तरफ देखकर कहा, ‘‘यदि आज्ञा हो तो मैं इस दरवाजे को खोलूँ और आपको तिलिस्म के अन्दर ले चलूँ।’’

सुरेन्द्र : हम भी यही चाहते हैं कि अब तिलिस्म के अन्दर चलकर वहाँ की कैफियत देखें, मगर यह भी बताओ कि जब इस चबूतरे के अन्दर जाने के बाद हम यह तिलिस्म देखते हुए चुनारगढ़ वाले तिलिस्म की तरफ रवाना होंगे तो वहाँ पहुँचने में कितनी देर लगेगी?

इन्द्रजीत : कम-से-कम बारह घण्टे। तमाशा देखने के सबब से यदि इससे ज्यादे देर हो जाय तो भी कोई ताज्जुब नहीं।

सुरेन्द्र : रात हो जाने के सबब किसी तरह का हर्ज तो न होगा?

इन्द्रजीत : कुछ भी नहीं, रात-भर बराबर तमाशा देखते हुए हम लोग चले जा सकते हैं।

सुरेन्द्र : खैर, तब तो कोई हर्ज नहीं।

इन्द्रजीतसिंह ने पुतलीवाले चबूतरे का दरवाजा उसी ढंग से खोला, जैसे पहिले खोल चुके थे, और सभों को साथ लिये हुए नीचेवाले तहखाने में पहुँचे, जिसमें बड़े-बड़े हण्डे अशर्फियों और जवाहिरात से भरे हुए पड़े थे।

इस कमरे में दो दरवाजे भी थे, जिनमें से एक तो खुला हुआ था और दूसरा बन्द। खुले हुए दरवाजे के बारे में दरियाफ्त करने पर कुँअर इन्द्रजीतसिंह ने बयान किया कि यह रास्ता जमानिया को गया है और हम दोनों भाई तिलिस्म तोड़ते हुए इसी राह से आये हैं। यहाँ से बहुत दूर पर एक स्थान है, जिसका नाम तिलिस्मी किताब में ‘ब्रह्म-मण्डल’ लिखा हुआ है, वहाँ से भी मुझे एक छोटी-सी किताब मिली थी, जिसमें इस विचित्र बँगले का पूरा हाल लिखा हुआ था कि तिलिस्म (चुनारगढ़वाला) तोड़नेवाले के लिए क्या-क्या जरूरी है। उस किताब को चुनारगढ़ तिलिस्म की चाभी कहें, तो अनुचित न होगा। वह किताब इस समय मौजूद नहीं है, क्योंकि पढ़ने के बाद वह तिलिस्म के काम में खर्च कर दी गयी। उस स्थान (ब्रह्म-मण्डल) में बहुत-सी तस्वीरें देखने योग्य हैं और वहाँ की सैर करके भी आप बहुत प्रसन्न होंगे।’’

सुरेन्द्र : हम जरूर उस स्थान को देखेंगे, मगर अभी नहीं। हाँ, और यह दूसरा दरवाजा जो बन्द है, कहाँ जाने के लिए है?

इन्द्रजीत : यही चुनारगढ़वाले तिलिस्म में जाने का रास्ता है, इस समय यही दरवाजा खोला जायगा और हम लोग इसी राह से जायेंगे।

सुरेन्द्र : खैर, तो अब इसे खोलना चाहिए।

पाठक, आपको इस सन्तति के पढ़ने से मालूम होता ही होगा कि अब यह उपन्यास समाप्ति की तरफ चला जा रहा है। हमारे लिखने के लिए अब सिर्फ दो बातें रह गयी हैं, एक तो इस चुनारगढ़वाले तिलिस्म की कैफियत और दूसरे दुष्ट कैदियों का मुकदमा, जिसके साथ बचे-बचाये भेद भी खुल जायेंगे। हमारे पाठकों में से बहुत से ऐसे हैं, जिनकी रुचि अब तिलिस्मी तमाशे की तरफ कम झुकती है, परन्तु उन पाठकों की संख्या बहुत ज्यादे है जो तिलिस्म तमाशे को पसन्द करते हैं और उसकी अवस्था विस्तार के साथ दिखाने अथवा लिखने के लिए बराबर जोर दे रहे हैं। इस उपन्यास में जोकुछ तिलिस्मी बातें लिखी गयी हैं, यद्यपि वे असम्भव नहीं और विज्ञानवेत्ता अथवा साइंस जाननेवाले जरूर कहेंगे कि, ‘हाँ, ऐसी चीजें तैयार हो सकती हैं’ तथापि बहुत-से अनजान आदमी ऐसे भी हैं, जो इसे बिल्कुल खेल ही समझते हैं, और कई इसकी देखा-देखी अपनी लिखी अनूठी किताबों में असम्भव बातें लिखकर तिलिस्म के नाम को बदनाम भी करने लग गये हैं, इसलिए हमारा ध्यान अब तिलिस्म लिखने की तरफ नहीं झुकता मगर क्या किया जाय लाचारी है, एक तो पाठकों की रुचि की तरफ ध्यान देना पड़ता है, दूसरे चुनारगढ़ के चबूतरेवाले तिलिस्म की कैफियत लिखे बिना काम नहीं चलता, जिसे इस उपन्यास की बुनियाद कहना चाहिए और जिसके लिए चन्द्रकान्ता उपन्यास में वादा कर चुके हैं। अस्तु, अब इस जगह चुनारगढ़ के चबूतरेवाले तिलिस्म की कैफियत लिखकर, इस पक्ष को पूरा करते हैं, तब उसके बाद दोनों कुमारों की शादी और कैदियों के मामले की तरफ ध्यान देकर इस उपन्यास को पूरा करेंगे।

महाराज की आज्ञानुसार कुँअर इन्द्रजीतसिंह दरवाजा खोलने के लिए तैयार हो गये। इस दरवाजे के ऊपर वाले महराब में किसी धातु के तीन मोर बने हुए थे, जो हरदम हिला ही करते थे। कुमार ने उन तीनों मोरों की गर्दन घुमाकर एक में मिला दी, उसी समय दरवाजा भी खुल गया और कुमार ने सभों को अन्दर जाने के लिए कहा। जब सब उसके अन्दर चले गये, तब कुमार ने भी उन मोरों को छोड़ दिया और दरवाजे के अन्दर जाकर महराज से कहा, ‘‘यह दरवाजा इसी ढंग से खुलता है, मगर इसके बन्द करने की कोई तरकीब नहीं है, थोड़ी देर में आप-से-आप बन्द हो जायगा। देखिए इस तरफ भी दरवाजे के ऊपरवाले महराब में उसी तरह के मोर बने हुए हैं, अतएव इधर से भी दरवाजा खोलने के समय वही तरकीब करनी होगी।’’

दरवाजे के अन्दर जाने के बाद तिलिस्मी खंजर से रोशनी करने की जरूरत नहीं रही, क्योंकि यहाँ की छत में कई सूराख ऐसे बने हुए थे, जिनमें से रोशनी बखूबी आ रही थी और आगे की तरफ निगाह दौड़ाने से यह भी मालूम होता था कि थोड़ी दूर जाने के बाद, हम लोग मैदान में पहुँच जायेंगे जहाँ से खुला आसमान बखूबी दिखाई देगा। अस्तु, तिलिस्मी खंजर की रोशनी बन्द कर दी गयी और दोनों कुमारों के पीछे-पीछे सब कोई आगे की तरफ बढ़े। लगभग डेढ़-सौ कदम चले जाने के बाद एक खुला हुआ दरवाजा मिला, जिसमें चौखट या किवाड़ कुछ भी न था। इस दरवाजे के बाहर होने पर सभों ने अपने को संगमरमर के छोटे-से एक दालान में पाया और आगे की तरफ छोटा-सा बाग देखा, जिसकी रविशें निहायत खूबसूरत स्याह और सुफेद पत्थरों से बनी हुई थीं, मगर पेड़ों की किस्म में से केवल कुछ जंगली पौधों और लताओं की हरियाली मात्र ही बाग का नाम चरितार्थ करने के लिए दिखाई दे रही थी। इस बाग के चारों तरफ चार दालान, चार ढंग के बने हए थे और बीच में छोट-छोटे कई चबूतरे और नहर की तौर पर सुन्दर और पतली नालियाँ बनी हुई थीं, जिनमें पहाड़ से गिरते हुए झरने का साफ जल बहकर वहाँ के पेड़ों को तरी पहुँचा रहा था और देखने में भी बहुत भला मालूम होता था। मैदान में से निकलकर और आँख उठाकर देखने पर बाग के चारों तरफ ऊँचे-ऊँचे हरे-भरे पहाड़ दिखायी दे रहे थे और वे इस बात की गवाही दे रहे थे कि यह बाग पहाड़ी की तराई अथवा घाटी में इस ढंग से बना हुआ है कि बाहर से किसी आदमी की इसके अन्दर आने की हिम्मत नहीं हो सकती और न कोई इसके अन्दर से निकलकर बाहर ही जा सकता है।

कुँअर इन्द्रजीतसिंह ने महाराज सुरेन्द्रसिंह की तरफ देखकर कहा, ‘‘उस चबूतरेवाले तिलिस्म के दो दर्जे हैं, एक तो यही बाग है और दूसरा उस चबूतरे के पास पहुँचने पर मिलेगा। इस बाग में आप जितने खूबसूरत चबूतरे देख रहे हैं, सभों के अन्दर बेअन्दाज दौलत भरी पड़ी है। जिस समय हम दोनों भाई यहाँ आये थे, इन चबूतरों का छूना, बल्कि इनके पास पहुँचना भी कठिन हो रहा था। (एक चबूतरे के पास ले जाकर) देखिए चबूतरे के बगल में नीचे की तरफ कड़ी लगी हुई है और इसके साथ नथी बारीक जंजीर है, वह (हाथ का इशारा करके) इस तरफ एक कूएँ में गिरी हुई है। इसी तरह हरएक चबूतरे में कड़ी और जंजीर लगी हुई है, जो सब उसी कुएँ में जाकर इकट्ठी हुई हैं। मैं नहीं कह सकता कि उस कुएँ के अन्दर क्या है, मगर उसकी तासीर यह थी कि इन चबूतरों को कोई छू नहीं सकता था। इसके अतिरिक्त आपको यह सुनकर ताज्जुब होगा कि उस चुनारवाले तिलिस्मी चबूतरे में भी जिस पर पत्थर का (असल में किसी धातु का) आदमी सोया हुआ है, एक जंजीर लगी हुई है और वह जंजीर भी भीतर-ही-भीतर यहाँ तक आकर उसी कूएँ में गिरी हुई है, जिसमें वे सब जंजीरें इकट्ठी हुई हैं, बस यही और इतना ही यहाँ का तिलिस्म है। इसके अतिरिक्त दरवाजों को छिपाने के सिवाय और कुछ भी नहीं है। हम दोनों भाइयों को तिलिस्मी किताब की बदौलत यह सब हाल मालूम हो चुका था, अतएव जब हम दोनों भाई यहाँ आये थे, तो इन चबूतरों से बिल्कुल हटे रहते थे। पहिला काम हम लोगों ने जो किया, वह यही था कि ये नालियाँ जो पानी से भरी और बहती हुई आप देख रहे हैं, जिस पहाड़ी झरने की बदौलत लबालब हो रही हैं, उसमें से एक नयी नाली खोदकर उसका पानी उसी कूएँ में गिरा दिया, जिसमें सब जंजीरें इकट्ठी हुई हैं, क्योंकि वह चश्मा भी उस कूएँ के पास ही है और अभी तक उसका पानी उस कूएँ में बराबर गिर रहा है। जब उस चश्मे का पानी (कई घण्टे तक) कूएँ के अन्दर गिरा, तब इन चबूतरों का तिलिस्मी असर जाता रहा और ये छूने के लायक हुए, मानो उस कूएँ में बिजली की आग भरी हुई थी, जो पानी गिरने से ठण्डी हो गयी। हम दोनों भाइयों ने तिलिस्मी खंजर से सब जंजीरों को काट-काट इन चबूतरों का और उस चुनारगढ़वाले तिलिस्मी चबूतरे का भी सम्बन्ध उस कूएँ से छुड़ा दिया, इसके बाद इन चबूतरों को खोलकर देखा और मालूम किया कि इनके अन्दर क्या है। अब आपकी आज्ञा होगी तो ऐयार लोग इस दौलत को चुनारगढ़ या जहाँ आप कहेंगे, पहुँचा देंगे।’’

इसके बाद इन्द्रजीतसिंह ने महाराज की आज्ञानुसार उन चबूतरों का ऊपरी हिस्सा जो सन्दूक के पल्ले की तरह खुलता था, खोल-खोलकर दिखाया। महाराज तथा और सबकोई यह देखकर बहुत प्रसन्न हुए कि उनमें बेहिसाब दौलत और जेवरों के अतिरिक्त बहुत-सी अनमोल चीजें भी भरी हुई हैं, जिनमें से दो चीजें महाराज ने बहुत पसन्द कीं। एक तो जड़ाऊ सिंहासन, जिसमें अनमोल हीरे और माणिक विचित्र ढंग से जड़े हुए थे और दूसरा किसी धातु का बना हुआ एक चन्द्रमा था। इस चन्द्रमा में दो पल्ले थे, जब दोनों पल्ले एक साथ मिला दिये जाते तो उसमें से चन्द्रमा ही की तरह साफ और निर्मल तथा बहुत दूर तक फैलनेवाली रोशनी पैदा होती थी।

उन चबूतरों के अन्दर की चीजों को देखते-ही-देखते तमाम दिन बीत गया। उस समय कुँअर इन्द्रजीतसिंह ने महाराज की तरफ देखकर कहा, ‘‘इस बाग में इन चबूतरों के सिवाय और कोई चीज देखने योग्य नहीं है, और अब रात भी हो गयी है, इसलिए यद्यपि आगे की तरफ जाने में कोई हर्ज तो नहीं है, मगर आज की रात इसी बाग में ठहर जाते तो अच्छा था।’’

भूतनाथ : क्या आज की रात भूखे-प्यासे ही बितानी पड़ेगी।

इन्द्रजीत : (मुस्कुराते हुए) प्यासे तो नहीं कह सकते, क्योंकि पानी का चश्मा बह रहा है, जितना चाहो पी सकते हो, मगर खाने के नाम पर तब तक कुछ नहीं मिल सकता, जब तक कि हम चुनारगढ़वाले तिलिस्मी चबूतरे से बाहर न हो जाँय।

जीत : खैर, कोई चिन्ता नहीं, ऐयारों के बटुए खाली न होंगे, कुछ-न-कुछ खाने की चीजें उनमें जरूर होंगी।

सुरेन्द्र : अच्छा अब जरूरी कामों से छुट्टी पाकर किसी दालान में आराम करने का बन्दोबस्त करना चाहिए।

महाराज की आज्ञानुसार सबकोई जरूरी कामों से निपटने की फिक्र में लगे और इसके बाद एक दालान में आराम करने के लिए बैठ गये। खास-खास लोगों के लिए ऐयारों ने अपने सामान में से बिस्तरे का इन्तजाम कर दिया।

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