लोगों की राय

मूल्य रहित पुस्तकें >> चन्द्रकान्ता सन्तति - 6

चन्द्रकान्ता सन्तति - 6

देवकीनन्दन खत्री

Download Book
प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :237
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8404
आईएसबीएन :978-1-61301-031-0

Like this Hindi book 10 पाठकों को प्रिय

192 पाठक हैं

चन्द्रकान्ता सन्तति 6 पुस्तक का ईपुस्तक संस्करण...

आठवाँ बयान


अब हम पीछे की तरफ लौटते हैं और पुनः उस दिन का हाल लिखते हैं, जिस दिन महाराज सुरेन्द्रसिंह और बीरेन्द्रसिंह वगैरह तिलिस्मी तमाशा देखने के लिए रवाना हुए हैं। हम ऊपर के बयान में लिख आये हैं कि उस महाराज और कुमार लोगों के साथ भैरोसिंह और तारासिंह न थे, अर्थात् वे दोनों घर ही पर रह गये थे। अस्तु, इस समय उन्हीं दोनों का हाल लिखना बहुत जरूरी हो गया है।

महाराज सुरेन्द्रसिंह, बीरेन्द्रसिंह, कुँअर इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह वगैरह के चले जाने के बाद भैरोसिंह अपनी माँ से मिलने के लिए तारासिंह को साथ लिए हुए महल में गये। उस समय चपला अपनी प्यारी सखी चम्पा के कमरे में बैठी हुई धीरे-धीरे कुछ बातें कर रही थी, जो भैरोसिंह और तारासिंह को आते देख चुप हो गयी और इन दोनों की तरफ देखकर बोली, ‘‘क्या महाराज तिलिस्मी तमाशा देखने के लिए गये?’’

भैरोसिंह : हाँ, अभी थोड़ी ही देर हुई है कि वे लोग उसी पहाड़ी की तरफ रवाना हो गये।

चपला : (चम्पा से) तो अब तुम्हें भी तैयार हो जाना पड़ेगा।

चम्पा : जरूर, मगर तुम भी क्यों नहीं चलतीं?

चपला : जी तो मेरा ऐसा ही चाहता है, मगर मामा साहब की आज्ञा हो तब तो!

चम्पा : जहाँ तक मैं खयाल करती हूँ, वे कभी इनकार न करेंगे। बहिन जब से मुझे यह मालूम हुआ कि इन्द्रदेव तुम्हारे मामा होते हैं, तब से मैं बहुत प्रसन्न हूँ।

चपला : मगर मेरी खुशी का तुम अन्दाजा नहीं कर सकतीं, खैर, इस समय असल काम की तरफ ध्यान देना चाहिए। (भैरोसिंह और तारासिंह की तरफ देखकर) कहो तुम लोग इस समय यहाँ कैसे आये?

तारा : (चपला के हाथ में एक पुर्जा देकर) जो कुछ है, इसी से मालूम हो जायगा।

चपला ने तारासिंह के हाथ से पुरजा लेकर पढ़ा और फिर चम्पा के हाथ में देकर कहा, ‘‘अच्छा जाओ कह दो कि हम लोगों के लिए किसी तरह का तरद्दुद न करें, मैं अभी जाकर कमलिनी और लक्ष्मीदेवी से मुलाकात करके बातें तै कर लेती हूँ।’’

‘‘बहुत अच्छा’’ कहकर भैरोसिंह और तारासिंह वहाँ से रवाना हुए, और इन्द्रदेव के डेरे की तरफ चले गये।

जिस समय महाराज सुरेन्द्रसिंह वगैरह तिलिस्मी कैफियत देखने के लिए रवाना हुए हैं, उसके दो या तीन घड़ी बाद घोड़े पर सवार इन्द्रदेव भी अपने चेहरे पर नकाब डाले हुए, उसी पहाड़ी की तरफ रवाना हुए, मगर ये अकेले न थे बल्कि और भी तीन नकाबपोश इनके साथ थे। जब ये चारों आदमी उस पहाड़ी के पास पहुँचे, तो कुछ देर के लिए रुके और आपुस में यों बातचीत करने लगे–

इन्द्रदेव : ताज्जुब है कि अभी तक हमारे आदमी लोग यहाँ नहीं पहुँचे।

दूसरा : और जब तक वे लोग न आवेंगे, तब तक यहाँ अटकना पड़ेगा।

इन्द्रदेव : बेशक!

तीसरा : व्यर्थ यहाँ अटके रहना तो अच्छा न होगा।

इन्द्रदेव : तब क्या किया जायगा?

तीसरा : आप लोग जल्दी से वहाँ पहुँचकर अपना काम कीजिए और मुझे अकेले इसी जगह छोड़ दीजिए, मैं आपके आदमियों का इन्तजार करूँगा और जब वे आ जायेंगे, तो सब चीजें लिये आपके पास पहुँच जाऊँगा।

इन्द्रदेव : अच्छी बात है, मगर उन सब चीजों को क्या तुम अकेले उठा लोगे?

तीसरा : उन सब चीजों की क्या हकीकत है, कहिए तो आपके आदमियों को भी उन चीजों के साथ पीठ पर लाद कर लेता आऊँ।

इन्द्रदेव : शाबाश! अच्छा रास्ता तो न भूलोगे?

तीसरा : कदापि नहीं, अगर मेरी आँखों पर पट्टी बाँधकर भी आप वहाँ तक ले गये होते, तो भी मैं रास्ता न भूलता और टटोलता हुआ वहाँ तक पहुँच ही जाता।

इन्द्रदेव : (हँसकर) बेशक तुम्हारी चालाकी के आगे यह कोई कठिन काम नहीं है, अच्छा हम लोग जाते हैं, तुम सब चीज लेकर हमारे आदमियों को फौरन वापस कर देना।

इतना कहकर इन्द्रदेव ने उस तीसरे नकाबपोश को उसी जगह छोड़ा और दो नकाबपोशों को साथ लिये हुए आगे की तरफ बढ़े।

जिस सुरंग की राह से बीरेन्द्रसिंह वगैरह उस तिलिस्मी बँगले में गये थे, उनसे लगभग आध-कोस उत्तर की तरफ हटकर और भी एक सुरंग का छोटा-सा मुहाना था, जिसका बाहरी हिस्सा जंगली लताओं और बेलों से छिपा हुआ था। इन्द्रदेव दोनों नकाबपोशों को साथ लिये तथा पेड़ों की आड़ लेकर चलते हुए,इसी दूसरी सुरंग के मुहाने पर पहुँचे और जंगली लताओं को हटाकर बड़ी होशियारी से इस सुरंग के अन्दर घुस गये।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book

A PHP Error was encountered

Severity: Notice

Message: Undefined index: mxx

Filename: partials/footer.php

Line Number: 7

hellothai