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चन्द्रकान्ता सन्तति - 6

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :237
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8404
आईएसबीएन :978-1-61301-031-0

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चन्द्रकान्ता सन्तति 6 पुस्तक का ईपुस्तक संस्करण...

दसवाँ बयान


घोड़े पर सवार तारासिंह को साथ लिये हुए कुँअर आनन्दसिंह जंगल-ही-जंगल और साधारण ढंग पर शिकार खेलते हुए बहुत दूर निकल गये और जब दिन बहुत कम बाकी रह गया, तब धीरे-धीरे घर की तरफ लौटे।

हम ऊपर के किसी बयान में लिख आये हैं कि ‘अटारी पर एक सजे हुए बँगले में बैठी हुई किशोरी, कामिनी और कमलिनी वगैरह ने जंगल से निकलकर घर की तरफ आते हुए कुँअर आनन्दसिंह और तारासिंह को देखा तथा यह भी देखा कि दस-बारह नकाबपोशों ने जंगल में से निकल इन दोनों पर तीर चलाये और ये दोनों उनका पीछा करते हुए पुनः जंगल के अन्दर घुस गये,– इत्यादि।

यह वही मौका है, जिसका हम जिक्र कर रहे हैं। उस समय कमला ने एक लौंडी की जुबानी इन्द्रजीतसिंह को इस बात की खबर दिलवा दी थी और खबर पाते ही कुँअर इन्द्रजीतसिंह, भैरोसिंह तथा और भी बहुत-से आदमी आनन्दसिंह की मदद के लिए रवाना हो गये थे।

असल बात यह थी कि भूतनाथ की चालाकी से शर्मिन्दगी उठाकर भी नानक ने सब्र नहीं किया, बल्कि पुनः इन लोगों का पीछा किया और अबकी दफे इस ढंग से जाहिर हुआ था कि मौका मिले तो आनन्दसिंह को तीर का निशाना बनावे और इसी तरह बारी-बारी से अपने दुश्मनों की जान लेकर कलेजा ठण्डा करे। मगर उसका यह इरादा भी काम न आया, आनन्दसिंह और तारासिंह की चालाकी तथा उनके घोड़ों की चपलता के कारण उसका निशाना कारगर न हुआ और उन्होंने तेजी के साथ उसके सर पर पहुँचकर सभों को हर तरह से मजबूर कर दिया। तब तक मदद लिए हुए कुँअर इन्द्रजीतसिंह भी आ पहुँचे और आठ साथियों के के सहित बेईमान नानक को गिरफ्तार कर लिया। यद्यपि उसी समय यह भी मालूम हो गया कि इसके साथियों में से कई आदमी निकल गये, मगर इस बात की कुछ परवाह न की गयी और जोकुछ गिरफ्तार हो गये थे, उन्हीं को लेकर सबकोई घर की तरफ रवाना हो गये।

कमबख्त नानक पर हर तरह की रिआयत की गयी, बहुत कड़ी सजा पाने के योग्य होने पर भी उसे किसी तरह की सजा न दी गयी और वह इस खयाल से बिल्कुल साफ छोड़ दिया गया कि शायद फिर भी सुधर जाय मगर नहीं–

भूयोपि सिक्ता पयसा घृतेन न निम्ब वृक्षो मधुरत्वमेति

अर्थात् ‘‘नीम न मीठी होय सींचे गुड़ घीउ से।’’

आखिर नानक को वह दुःख भोगना ही पड़ा, जो उसकी किस्मत में बदा हुआ था।

जिस समय नानक गिरफ्तार करके लाया गया और लोगों ने उसका हाल सुना उस समय सभों को उसकी नालायकी पर बहुत ही रंज हुआ। महाराज की आज्ञानुसार वह कैदखाने में पहुँचाया गया और सभों को निश्चय हो गया कि अब इसे किसी तरह का छुटकारा नहीं मिल सकता।

दूसरे दिन दरबारे-आम का बन्दोबस्त किया गया और कैदियों का मुकदमा सुनने के लिए बड़े शौक से लोग इकट्ठा होने लगे। हथकड़ियों और बेड़ियों से जकड़े हुए कैदी लोग हाजिर किये गये और आपुसवालों तथा ऐयारों को साथ लिए हुए महाराज भी दरबार में आकर एक ऊँची गद्दी पर बैठ गये। आज के दरबार में भीड़ मामूली से बहुत ज्यादे थी और कैदियों का मुकदमा सुनने के लिए सभी उतावले हो रहे थे। भरतसिंह, दलीपशाह, अर्जुनसिंह तथा उनके और भी दो साथी जो तिलिस्म के बाहर होने के बाद अपने घर चले गये थे और अब लौट आये हैं, अपने-अपने चेहरों पर नकाब डालकर दरबार में राजा गोपालसिंह के पास बैठ गये और महाराज के हुक्म का इन्तजार करने लगे।

महराज का इशारा पाकर भरतसिंह खड़े हो गये और उन्होंने दारोगा तथा जैपाल की तरफ देखकर कहा–

‘‘दारोगा साहब, जरा मेरी तरफ देखिए और पहिचानिए कि मैं कौन हूँ। जैपाल, तू भी इधर निगाह कर!’’

इतना कहकर भरतसिंह ने अपने चेहरे पर से नकाब उलट दी और एक दफे चारों तरफ देखकर सभों का ध्यान अपनी तरफ खैंच लिया। सूरत देखते ही दारोगा और जैपाल थर-थर काँपने लगे। दारोगा ने लड़खड़ाई हुई आवाज से कहा, ‘‘कौन? ओफ, भरतसिंह! नहीं नहीं, भरतसिंह कहाँ? उसे मरे बहुत दिन हो गये, यह तो कोई ऐयार है!!’’

भरत : नहीं नहीं, दारोगा साहब मैं ऐयार नहीं हूँ, मैं वही भरतसिंह हूँ, जिसके मुँह पर आपने मिर्च का तोबड़ा चढ़ाया था और मैं वही भरतसिंह हूँ, जिसे आपने अँधेरे कूएँ में लटका दिया था। सुनिए मैं अपना किस्सा बयान करता हूँ और यह भी कहता हूँ कि आखीर में मेरी जान क्योंकर बची। जैपालसिंह, आप भी सुनिए और हुंकारी भरते चलिए।

इतना कहकर भरतसिंह ने अपना किस्सा आदि से कहना आरम्भ किया जैसा कि हम ऊपर बयान कर आये हैं और इसके बाद यों कहने लगे–

‘‘दारोगा की बातों ने मुझे घबड़ा दिया और मैं उलटे पैर मोहनजी वैद्य को बुलाने के लिए रवाना हुआ। मुझे इस बात का रत्ती-भर भी शक नहीं था कि मोहनजी और दारोगा साहब एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैं अथवा इन दोनों में हमारे लिए कुछ बातें तै पा चुकी हैं। मैं बेधड़क उनके मकान पर गया और इत्तिला कराने के बाद उनके एकान्तवाले कमरे में जा पहुँचा, जहाँ उन्होंने मुझे बुला भेजा था। उस समय वे अकेले बैठे माला जप रहे थे। नौकर मुझे वहाँ तक पहुँचाकर बिदा हो गया और मैंने उनके पास बैठकर राजा साहब का हाल बयान करके खास बाग में चलने के लिए कहा। जवाब में वैद्य जी यह कहकर कि ‘मैं दवाओं का बन्दोबस्त करके अभी आपके साथ चलता हूँ’, खड़े हुए और आलमारी में से कई तरह की शीशियाँ निकाल-निकाल जमीन पर रखने लगे। उसी बीच में उन्होंने एक छोटी शीशी निकालकर मेरे हाथ में दी और कहा, ‘‘देखिए यह मैंने एक नये ढंग की ताकत की दवा तैयार की है, खाना तो दूर रहा, इसके सूँघने ही से तुरन्त मालूम होता है कि बदन में एक तरह की ताकत आ रही है! लीजिए जरा सूँघके अन्दाज तो कीजिए।’’

मैं वैद्यजी के फेर में पड़ गया और शीशी का मुँह खोलकर सूँघने लगा। इतना तो मालूम हुआ कि इसमें कोई खुशबूदार चीज है, मगर फिर तनोबदन की सुध न रही। जब मैं होश में आया तो अपने को हथकड़ी-बेड़ी से मजबूर एक अँधेरी कोठरी में कैद पाया। नहीं कह सकता कि वह दिन का समय था या रात का। कोठरी के एक कोने में चिराग जल रहा था और दारोगा तथा जैपाल हाथ में नंगी तलवार लिये सामने बैठे हुए थे।

मैं : (दारोगा से) अब मालूम हुआ कि आपने इसी काम के लिए मुझे वैद्यजी के पास भेजा था।

दारोगा : बेशक इसीलिए, क्योंकि तुम मेरी जड़ काटने के लिए तैयार हो चुके थे।

मैं : तो फिर मुझे कैद कर रखने से क्या फायदा? मारकर बखेड़ा निपटाइए और बेखटके आनन्द कीजिए।

दारोगा : हाँ, अगर तुम मेरी बात न मानोगे, तो बेशक मुझे ऐसा ही करना पड़ेगा।

मैं : मानने की कौन-सी बात है? मैंने तो अभी तक कोई ऐसा काम नहीं किया, जिससे आपको किसी तरह का नुकसान पहुँचे।

दारोगा : ये सब बातें रहने दो, क्योंकि तुम और हरदीन मिलकर जोकुछ कर चुके थे और जो किया चाहते थे, उसे मैं खूब जानता हूँ, मगर बात यह है कि अगर तुम चाहो तो मैं तुम्हें इस कैद से छुट्टी दे सकता हूँ, नहीं तो मौत तुम्हारे लिए रक्खी हुई है।

मैं : खैर, बतलाइए तो सही कि वह कौन-सा काम है, जिसके करने से छुट्टी मिल सकती है!

दारोगा : यही कि तुम एक चीठी इन रघुबरसिंह अर्थात् जैपाल के नाम लिख दो, जिसमें यह बात हो कि ‘लक्ष्मीदेवी के बदले में मुन्दर को मायारानी बना देने में जोकुछ मेहनत की है, वह हम-तुम दोनों ने मिलकर की है, अतएव उचित है कि इस काम में जोकुछ तुमने फायदा उठाया है, उसमें से आधा मुझे बाँट दो नहीं तो तुम्हारे लिए अच्छा न होगा’।

मैं : ठीक है, आपका मतलब मैं समझ गया। खैर, आज तो नहीं मगर कल जैसा आप कहते हैं, वैसा ही कर दूँगा।

दारोगा : आखिर एक दिन की देर करने में तुमने फायदा ही क्या सोच लिया है!

मैं : सो भी कल बताऊँगा।

दारोगा : अच्छा क्या हर्ज है, कल ही सही।

इतना कहकर दारोगा चला गया और मैं भूखा-प्यासा उसी कोठरी में पड़ा हुआ तरह-तरह की बातें सोचने लगा, क्योंकि उस दिन दारोगा ने मेरे खाने-पीने के लिए कुछ भी प्रबन्ध न किया। मुझे निश्चय हो गया कि इस ढंग की चीठी मेरी बदनामी का सबब बनेगी, मेरे दोस्त गोपालसिंह मुझको बेईमान समझेंगे और तमाम दुनिया मुझे कमीना खयाल करेगी। अस्तु, मैंने दिल में ठान ली कि चाहे जान जाये या रहे, मगर इस तरह की चीठी मैं कदापि न लिखूँगा। आखिर मरना तो जरूर ही है, फिर कलंक का टीका जान-बूझकर अपने माथे क्यों लगाऊँ?

दूसरे दिन रघुबरसिंह को साथ लिये हुए दारोगा पुनः मेरे पास आया।

भरतसिंह ने अपना हाल यहाँ तक बयान किया था कि राजा गोपालसिंह ने बीच में ही टोका और पूछा, ‘‘क्या रघुबरसिंह इसी जैपाल का नाम है?’’

भरत : जी हाँ, इसका नाम रघुबरसिंह था और कुछ दिन के लिए, इसने अपना नाम ‘भूतनाथ’ रख लिया था।

गोपाल : ठीक है, मुझे इस बारे में धोखा हुआ नहीं, बल्कि, मेरे खजानची ही ने मुझे धोखा दिया। खैर, तब क्या हुआ?

भरत : हाँ, तो दूसरे दिन जैपाल को साथ लिये हुए दारोगा पुनः मेरे पास आया और बोला, ‘‘कहो चीठी लिख देने के लिए तैयार हो या नहीं?’’ इसके जवाब में मैंने कहा कि ‘मर जाना मंजूर है, मगर झूठे कलंक का टीका अपने माथे पर लगाना मंजूर नहीं’।

दारोगा ने मुझे कई तरह से समझाना-बुझाना और धोखे में डालना चाहा, मगर मैंने उसकी एक न सुनी। आखिर दोनों ने मिलकर मुझे मारना शुरू किया, यहाँ तक मारा कि मैं बेहोश हो गया। जब होश में आया तो फिर उसी तरह अपने को कैद पाया। भूख और प्यास के मारे मेरा बुरा हाल हो रहा था और मार के सबब से तमाम बदन चूर-चूर हो रहा था। तीसरे दिन दोनों शैतान पुनः मेरे पास आये और जब उस दिन भी मैंने दारोगा की बात न मानी, तो उसने घोड़ों के दाना खानेवाले तोबड़े में चूर किया हुआ मिरचा रखकर, मेरे मुँह पर चढ़ा दिया। हाय हाय! उस तकलीफ को मैं कभी नहीं भूल सकता!!

यहाँ तक कहकर भरतसिंह चुप हो गये और दारोगा तथा जैपाल की तरफ देखने लगे। वे दोनों सर नीचा किये हुए जमीन की तरफ देख रहे थे और डर के मारे दोनों का बदन काँप रहा था। भरतसिंह ने पुकारकर कहा, ‘‘कहिए दारोगा साहब, जोकुछ मैं कह रहा हूँ, वह सच है या झूठ?’’ मगर दारोगा ने इसका कुछ भी जवाब न दिया। मगर उस समय दरबार में जितने आदमी बैठे थे, क्रोध के मारे सभों का बुरा हाल था और सबकोई दारोगा की तरफ जलती हुई निगाह से देख रहे थे। भरतसिंह ने फिर इस तरह कहना शुरू किया–

‘‘दारोगा के सम्बन्ध में मेरा किस्सा वैसा दिलचस्प नहीं है, जैसा दलीपशाह और अर्जुनसिंह का आप लोग सुनेंगे, क्योंकि उनके साथ बड़ी-बड़ी विचित्र घटनाएँ हो चुकी हैं, बल्कि यों कहना चाहिए कि मेरा तमाम किस्सा उनकी एक दिन की घटना का मुकाबला भी नहीं कर सकता, परन्तु साथ ही इसके यह बात भी जरूर है कि मैंने न तो कभी किसी के साथ, किसी तरह की बुराई की और न किसी से विशेष मेलजोल या हँसी-दिल्लगी ही रखता था, फिर भी उन दिनों जमानिया की वह दशा थी कि सादे ढंग पर जिन्दगी बितानेवाला मैं भी सुख की नींद न सो सका और राजा साहब की दोस्ती की बदौलत मुझे हर तरह का दुःख भोगना पड़ा। इस हरामखोर दारोगा ने ऐसे-ऐसे कुकर्म किये हैं कि जिनका पूरा-पूरा बयान हो ही नहीं सकता और न यही मेरी समझ में आता है कि दुनिया में कौन सी ऐसी सजा है, जो इसके योग्य समझी जाय। अस्तु, अब मैं संक्षेप में अपना हाल समाप्त करता हूँ।

अपने मन के माफिक चीठी लिखाने की नीयत से आठ दिन तक कमबख्त दारोगा ने मुझे बेहिसाब तकलीफें दीं। मिर्च का तोबड़ा मेरे मुँह पर चढ़ाया, जहरीली राई का लेप मेरे बदन पर किया, कूएँ में लटकाया, गन्दी कोठरी में बन्द किया, जो-जो सूझा सब कुछ किया और इतने दिनों तक बराबर ही मुझे भूखा भी रक्खा, मगर न मालूम क्या सबब है कि मेरी जान न निकाली। मैं बराबर ईश्वर से प्रार्थना करता था कि किसी तरह मुझे मौत दे, जिससे इस दुःख से छुट्टी मिले। आखिरी दिन मैं इतना कमजोर हो गया था कि मुझमें बात करने की ताकत न थी।

उस दिन आधी रात के समय मैं उसी कोठरी में पड़ा-पड़ा मौत का इन्तजार कर रहा था कि यकायक कोठरी का दरवाजा खुला और एक नकाबपोश दहिने हाथ में नंगी तलवार और बाएँ हाथ में एक छोटी-सी गठरी लिये हुए कोठरी के अन्दर आता हुआ दिखायी पड़ा। हाथ में वह जो तलवार लिए था, उसके अतिरिक्त उसकी कमर में एक तलवार और भी थी। कोठरी के अन्दर आते ही उसने भीतर से दरवाजा बन्द कर लिया और मेरे पास चला आया, हाथ की गठरी और तलवार जमीन पर रख मुझसे चिमट गया और रोने लगा। उसकी ऐसी मुहब्बत देख मैं चौंक पड़ा और मुझे तुरन्त मालूम हो गया कि यह मेरा पुराना खैरख्वाह हरदीन है। उसके चेहरे से नकाब हटाकर मैंने उसकी सूरत देखी और तब रोने में उसका साथ दिया।

थोड़ी ही देर बाद हरदीन मुझसे अलग हुआ और बोला, ‘‘मैं किसी-न-किसी तरह यहाँ तो पहुँच गया, मगर यहाँ से निकल भागना जरा कठिन है, तथापि आप घबड़ाएँ नहीं, मैं एक दफे दुश्मन को सताये बिना नहीं रहता, अब आप शीघ्र उठें और जोकुछ मैं खाने-पीने के लिए लाया हूँ, उसे भोजन करके चैतन्य हो जाँय।’’

जो गठरी हरदीन लाया था, उसमें खाने-पीने का सामान था। उसने मुझे भोजन कराया, पानी पिलाया और इसके बाद मेरे हाथ में एक तलवार देकर बोला, ‘‘बस अब आप उठिए और मेरे पीछे-पीछे चले आइए, इतना समय नहीं है कि मैं आपसे विशेष बातें करूँ, इसके अतिरिक्त जिस जगह पर आप कैद हैं, यह तिलिस्म का एक हिस्सा है, यहाँ से निकलने के लिए भी बहुत उद्योग करना होगा।’’

भोजन करने से कुछ ताकत तो मुझमें हो ही गयी थी मगर कैद से छुटकारा मिलने की उम्मीद ने उससे भी ज्यादे ताकत पैदा कर दी। मैं उठ खड़ा हुआ और हरदीन के पीछे-पीछे रवाना हुआ। कोठरी का दरवाजा खोलने के बाद जब मैं बाहर निकला, तब मुझे मालूम हुआ कि मैं खास बाग के तीसरे दर्जे में हूँ, जिसमें कई दफे राजा गोपालसिंह के साथ आ चुका था, मगर इस बात से मुझको बहुत ही ताज्जुब हुआ और मैं सोचने लगा कि देखो राजा साहब के खास बाग ही में दारोगा लोगों पर इतना जुल्म करता है और राजा साहब को खबर तक नहीं होती! क्या यहाँ कई ऐसे स्थान हैं, जिनका हाल दारोगा जानता है और राजा साहब नहीं जानते?

खैर, मैं कोठरी के बाहर निकलकर बारामदे में पहुँचा, जहाँ से बायें और दाहिने सिर्फ दो ही तरफ जाने का रास्ता था। दाहिने तरफ इशारा करके हरदीन ने मुझसे कहा, ‘‘इसी तरफ से मैं आया हूँ, दारोगा जैपाल तथा बहुत से आदमी इस तरफ बैठे हैं, इसलिए इधर तो अब जा नहीं सकते, हाँ बायीं तरफ चलिए कहीं-न-कहीं तो रास्ता मिल ही जायगा।’’

रात चाँदनी थी और ऊपर से खुला रहने के सबब उधर की हर एक चीज साफ-साफ दिखायी देती थी। हम दोनों आदमी बायीं तरफ रवाना हुए। लगभग पचीस कदम जाने के बाद नीचे उतरने के लिए दस-बारह सीढ़ियाँ मिलीं, जिन्हें तै करने के बाद हम दोनों एक दालान में पहुँचे, जो बहुत लम्बा-चौड़ा तो न था, मगर निहायत खूबसूरत और स्याह पत्थर का बना हुआ था। उस दालान में पहुँचे ही थे कि पीछे से दारोगा और जैपाल तेजी के साथ आते हुए दिखायी पड़े, मगर हरदीन ने इनकी कुछ भी परवाह न की और कहा, ‘‘इन दोनों के लिए तो मैं अकेला ही काफी हूँ।’’

हरदीन मुझे अपने पीछे करने के बाद अड़कर खड़ा हो गया। उसने दारोगा को सैकड़ों गालियाँ दीं और मुकाबला करने के लिए ललकारा, मगर उन दोनों की हिम्मत न पड़ी कि आगे बढ़ें और हरदीन का मुकाबला करें। कुछ देर तक खड़े-खड़े देखने और सोचने के बाद दारोगा ने अपनी जेब में से एक छोटा-सा गोला निकाला और हम दोनों की तरफ फेंका। हरदीन समझ गया कि जमीन पर गिरने के साथ ही इसमें से बेहोशी का धुआँ निकलेगा। उसने अपने हाथ से मुझे भागने का इशारा किया। गोला जमीन पर गिरकर फटा और उसमें से बहुत सा धुआँ निकला, मगर हम दोनों वहाँ से हट गये थे, इसलिए उसका कुछ असर न हुआ। उसी समय दारोगा ने हम लोगों की तरफ फेंकने के लिए दूसरा गोला निकाला।

इस दालान के बीचोबीच में एक छोटा-सा चबूतरा लाल पत्थर का बना हुआ था, मगर हम दोनों नहीं जानते थे कि इसमें क्या गुण है। दारोगा को दूसरा गोला निकालते देख हम दोनों उस चबूतरे पर चढ़ गये, मगर उस पर से उतर कर भाग न सके, क्योंकि चढ़ने के साथ ही चबूतरा हिला, तब हम दोनों को लिए हुए जमीन में धँस गया और साथ ही न मालूम किस चीज के असर से हम दोनो बेहोश हो गये। जब होश में आये तो चारों तरफ अन्धकार-ही-अन्धकार दिखायी दिया, नहीं कह सकते कि हम दोनों कितनी देर तक बेहोश रहे।

कुछ देर तक चुपचाप बैठे रहने के बाद सामने की तरफ कुछ उजाला धीरे-धीरे बढ़ने लगा, जिससे हमने समझा कि सामने कोई दरवाजा है और उसमें से सुबह की सुफेदी दिखायी दे रही है। हम दोनों उठ कर खड़े हुए और उसी उजाले की तरफ बढ़े। वास्तव में वैसा ही था, जैसा हम लोगों ने सोचा था। कई कदम चलने के बाद एक दरवाजा मिला, जिसे लाँघकर हम दोनों उसी बुर्जवाले बाग में जा पहुँचे, जहाँ दोनों कुमारों से मुलाकात हुई थी। इसके बाद बाहर का हाल बहुत दिनों तक कुछ भी मालूम न हुआ कि क्या हो रहा है और क्या हुआ। बहुत दिनों तक वहाँ से बाहर निकलने के लिए उद्योग करते रहे, परन्तु सब व्यर्थ हुआ और वहाँ से छुट्टी तभी मिली, जब दोनों कुमारों के दर्शन हुए१। कुछ दिनों बाद दलीपशाह से भी उसी बाग में मुलाकात हुई, जिसका हाल उनका किस्सा सुनने से आप लोगों को मालूम होगा। (१. देखिए, चन्द्रकान्ता सन्तति-5, बीसवाँ भाग, चौथा बयान।)

बस इतना ही तो मेरा किस्सा है, हाँ, जब आप लोग दलीपशाह की कहानी सुनेंगे, तब बेशक कुछ आनन्द मिलेगा। (एक नकाबपोश की तरफ बताकर) मेरा पुराना खैरख्वाह हरदीन यही है, जो इतने दिनों तक मेरे सुख-दुःख का साथी बना रहा और अन्त में मेरे साथ ही कैद से छूटा।’’

भरतसिंह की कथा समाप्त होने के बाद दरबार बरखास्त किया गया और महाराज ने हुक्म दिया कि ‘कल के दरबार में दलीपशाह अपना किस्सा बयान करेंगे’।

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